आवरण कथा - Down To Earth

15 जनवरी 2017 ... यात्ाएं दुनिया मेंमिुषय केज्ाि का पहला साधि रही हैं। यह. गनिशीलिा ही इंसाि को अंधेरे से रोशिी मेंलािे का माधयम. बिी है। आनिर अमेररकी...

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आवरण कथा

अरे यायावर...

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फोटो: विकास चौधरी / सीएसई

यात्राएं दुनिया में मनुष्य के ज्ञान का पहला साधन रही हैं। यह गतिशीलता ही इंसान को अंधरे े से रोशनी में लाने का माध्यम बनी है। आखिर अमेरिकी लोगों को भारत के बारे में कैसे पता चला? क्यों धरती पर फूल वाले पौधों की तादाद बिना फूल वाले पौधों से ज्यादा है? आग के गोले से पृथ्वी जीवन से भरपूर कैसे बनी? एक सुदरू वर्ती गांव की कुछ महिलाओं का आंदोलन देश में पर्यावरण चेतना का प्रतीक कैसे बन गया? ऐसे लाखों सवाल हैं, जो हमारे मन में उठते रहते हैं। इनमें से ज्यादातर सवालों के जवाब हम पा चुके हैं। लेकिन सवाल यह है कि हमारे लिए ये जवाब किसने खोजे हैं? इन जवाबों के पीछे न जाने कितने लोग, कितने ही अथक प्रयास रहे हैं। लेकिन एक चीज इन्हें जोड़ती है: यात्राए।ं जिज्ञासाओं को शांत करने की यह सनातन यात्रा है। जानेअनजाने हम सब इस यात्रा में शामिल हैं। इंसान के जीवन में जब भी कोई ठहराव आया तो वह जड़ता यात्रा से टूटी। जब भी कोई उलझन-घुटन, निराशा-हताशा पैदा हुई तो इंसान ने चलने का फैसला किया और राहत पाई। इस तरह यात्राएं हमारे जीवन और अस्तित्व को सींचती रही हैं। आप भले ही इसे आवरगी कहें, तीर्थयात्रा, देशाटन कहें या पर्यटन, इंसान दूरियों और बाधाओं को लांघकर चलता रहा है। यह हर कदम हमें अनुभव और उद्भव के नए सोपान पर ले जाता है। इन यात्राओं ने ही संसार को यह मोहक रूप दिया है। बादल यात्रा नहीं करते तो बारिश न होती, मधुमक्खियां-तितलियां यात्राएं न करें तो सुदं र फूल नहीं खिलते, नदियां यात्रा न करें तो हम प्यासे मर जाएं, धूल-मिट्टी यात्रा न करे तो उपजाऊ धरती नहीं बनती! ये चांद-तारे यात्रा न करते तो ये ब्रह्मांड कैसा बनता। यह एक अनंत यात्रा है। ‘डाउन टू अर्थ’ के नववर्ष विशेषांक में हमारे लेखक इसी यात्रालोक की सैर कराएंग।े खास बात यह है कि ये सिर्फ घूमनेफिरने के ब्यौरे नहीं हैं बल्कि पर्यावरण के लिहाज से महत्वपूर्ण जगहों और इनके जुड़ी अनूठी यात्राओं की ओर मुड़कर देखने का प्रयास हैं। ऐसी यात्राएं जिन्होंने हमें प्रकृति व पर्यावरण को देखन-े समझने का नया नजरिया दिया। इस अंक में चिपको और साइलेंट वैली जैसे पर्यावरण आंदोलनों की यात्रा है तो राजस्थान के पारंपरिक स्वाद और कोसी व बस्तर की दुविधाओं का सफर भी है। यात्राओं की इस यात्रा में आपका स्वागत है! www.downtoearth.org.in | 27

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पथिक, बदल गईं पहाड़ की पलकें

यात्राओं के सम्मोहक संसार में यूं बदलता गया पथ और पथिक का रिश्ता

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950 के दशक के मध्य तक मुक्तेश्वर

पुष्पेश पंत 1920 के दशक के आखिर में पिता जब लखनऊ में डाक्टरी पढ़ते थे, तो अल्मोडा से काठगोदाम का सफर लौरी से दो दिन में तय होता था बरास्ता कोसी-रानीखेत-गरमपानी

नामक कस्बानुमा गांव में मोटरगाड़ी नहीं पहुंची थी। सारी यात्राएं पैदल ही शुरू और खत्म होती थीं। बस पकड़ने के लिए भुवाली तक और रेल की सवारी के लिए काठगोदाम तक संकरे-पथरीले, चढाई-उतार वाले रास्ते पडाव तक पहुंचाते थे। देवदार, बांज, पांगर,अखरोट के पेडों से बिछुड़ना इस बात का अहसास बढ़ाता था कि ‘घर’ छूट रहा है, चाहे कुछ ही दिनों के लिए हालांकि जल्दी ही चीड के सुगंधित जंगल के बीच से उतरता पथ यह गम दूर करने लगता था। यह आशा जगाता कि रास्ते में जाने क्या क्या नई-नई चीजें देखने को मिलेंगी। ‘लंबपुछड चिडिया’, चालाक लोमड़ी, भूला भटका चुतरौल, लोहे की रस्सी पर झूलता पुल और घुटने तक पानी में डूब कर उन ‘गाडों’ (छोटी पहाड़ी नदियों) को पार करने का रोमांच जिन पर पुल नहीं बने थे। हर दिशा रास्ते में सुस्ताने, थकान दूर करने के लिए हर तीन-चार मील की दूरी पर कुछ खाने पीने के लिए जाने पहचाने ठिकाने थे। अल्मोडा की तरफ सीतला, प्यूडा, घुराडी तो नैनीताल की ओर ओडाखान, नथुवाखान, तल्ला रामगाड, मल्ला रामगाड, गागर, श्यामखेत, भुवाली। काठगोदाम के लिए रास्ता कसियालेख से कटता था-धारी, पद्मपुरी, भीमताल होता। कोई जगह मशहूर थी ठंडे मीठे पानी के धारे के लिए तो किसी खोमचेनमु ा दुकान तक पहुच ं ते कदम अपने आप तेज होने लगते थे भुनी पत्तियों से बनी चाय और चटपटे आलू के गुटकों की उम्मीद में। सड़क किनारे जगह जगह जहां गोमुख या लोहे के नल वाले धारे नहीं थे, वहां भी चट्टान से बूदं बूदं रिसते पाने को ‘धार’ बनाने के लिए कौशल से बडा-सा हरा पत्ता इस्तेमाल किया जाता था। एकाध ज्यादा नमी वाली जगह ‘नौले’ मिलते-पहाड़ी बावली या मवेशियों के लिए कच्ची ‘हौद’। खेतों के बीच से गुजरती पतली कच्ची नालियां ‘गूल’ कहलाती थीं और जहां बारिश का पानी अपना रास्ता तलाश बह निकलता था, वहां बडे-छोटे ‘गधेरे’ जमीन को काटते खाई-सी बना देते थे। मां को मोटर रास नहीं आती थी, पेट्रौल की बदबू से जी घबराता था। वह शादी के पहले कई बार यह

सफर काठगोदाम से अल्मोडा तक का पैदल तय कर चुकी थीं। हर बार उन्हें कोई परिचित धारा-नौला, पुलिया ग्राम देवता का मंदिर याद आने लगता। कहतीं, “बस आने ही वाला है वह ‘घट’ जो जहां से समतल शुरू होता है!” या “बड़ी ठंडी जगह है- यहां की गडेरी बड़ी मीठी होती है!” पिता जब लखनऊ में डाक्टरी पढते थे तब 1920 के दशक के अंत में अल्मोडा से काठगोदाम का सफर लौरी में दो दिन में तय होता था बरास्ता कोसीरानीखेत-गरमपानी। कोई पचास साल बाद भी इन जगहों से गुजरते उन्हें ठोस जमा मलाई दार दही याद आ जाता था या फिर गरमागरम पूड़ी-आलू के साथ मिर्ची से भी तेज राई का रायता। मौसमी फल काफलहिसालू, आडू-सेब ,नाशपाती-पुलम खरीद कर कभी खाएं हों, याद नहीं पड़ता। रास्ते में जो बगीचे पड़ते उनके मालिकों की तरफ से यह दावत रहती। अल्मोड़ा आधे दिन में पहुच ं ा जा सकता था, नैनीताल एक दिन का सफर तो काठगोदाम से रेल पकड़ने के लिए आम तौर पर रात कहीं बिताने का बंदोबस्त करने की दरकार होती थी। उस वक्त तक भी छोटी-छोटी बिना दरवाजे वाली ‘धर्मशालाएं’ खंडहरों में तब्दील हो चुकीं थीं और दूकानें या दूरदराज के रिश्तेदारों के घर ही ‘रैनबसेर’े बन जाते थे। पिता बताते थे यह पुरानी धर्मशालाएं ‘लछुगौड’ नामके किसी रईस की परोपकारी विधवा ने उनकी याद में बनावाई थीं। ऐसी जाने कितनी धर्मशालाएं बद्रीनाथकेदारनाथ वाले यात्रापथ पर बिखरी थीं। कभी कभार वह डाकबंगले नजर आते थे जिन्हें अंग्ज रे हाकिमों ने-खास कर जंगलात और सार्वजनिक निर्माण विभाग के अफसरों ने- अपने दौरों को आरामदेह बनाने के

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जो यात्राएं शौक के लिए की जाती हैं, क्या उन्हें तेज रफ्तार से मशीनीकरण के बिना नहीं तय किया जा सकता?

लिए बनवाया था। इनकी छतें मुक्तेश्वर के बंगलों की तरह लाल टीन की होती थीं और उसी अंदाज में ‘किचन’ और चौकीदार-खानसामा के रहने के लिए बनाया कमरा जरा अलग दिखता था। उल्लेखनीय बात यह है कि पहले विश्व युद्ध के अंत से करीब 1962 वाले भारत-चीन युद्ध के अंतराल में पहाड़ी यात्राएं बहुत कम बदली थीं- विकास के नाम पर सड़क, पुल भवन निर्माण ने पहाड़ को बुरी तरह घायल नहीं कर दिया था। यात्रियों का रिश्ता रास्ते के साथ अपनेपन वाला थासहयात्री पथिकों के साथ सुख-दुख साथ भोगने के जज्बे वाला। 1965 तक पैदल रास्ते छूटने लगे थे। दस-बारह मील पैदल चलने की बजाय मुक्तेश्वर से अल्मोडा जाने के लिए पचास साठ मील की बस यात्रा को विकल्प खर्चीला होने के बावजूद ‘बेहतर’ समझाया जाने लगा था। पलक झपकते पथिक और पथ का रिश्ता बदल गया। अब बस चंद मिनट ठहरती थी, वह भी सवारी उठाने को। फुर्सत से गरम चाय गटकने ताजा बना कुछ खाने की मोहलत नहीं थीं। इसी मोहलत का फायदा उठा कुछ शौकीन साहसी अखबार के दोने में गरम पकौडियों के ऊपर रायता डलवा अपना जौहर दिखलाते थे। फिर यह भी झंझट का काम लगने लगा। दो चार साल में ही देखते देखते गरमपानी और कोसी, रामगाड-भुवाली उजड़ गए। बोतलबंद पानी, पैकेट वाली नमकीन, चूरन की जगह खट्टी मीठी गोलियों ने ले ली। हार्न बजाती सरपट भागती बस से बाहर झांक कर न तो जाने पहचाने दरख्तों से दुआ सलाम संभव रही न ही खोमचे पर बैठे परिचित पुश्तैनी पारिवारिक मित्र दूकानदारों से। यह

ना समझें कि हम वैज्ञानिक प्रगति के विरोधी, मोटर या रेल के सफर के जन्मजात दुश्मन हैं। हमारा दर्द यात्रा की रफ्तार तेज होने के साथ और उसके लगातार आसान और फिजूलखर्च होने को ले कर है। पर्यावरण के क्षय के साथ-साथ इस प्रवृत्ति ने हमारी संवेदनशीलता और मानवीय सहानुभूति को भी बेरहमी से नष्ट किया है। अभी हाल में नैनीताल में ‘स्नो व्यू’ से रातीघाटकैंची वाले पुराने पैदल रास्ते की छोटी सी इकदिनिया यात्रा ने घाव पर लगी पपड़ी खरोंच उसे हरा कर दिया। तीन चार मील के बाद ही चार फुट चौडा खच्चरों के लिए आरामदेह रास्ता पहले ऊबड़ खाबड़ पगडंडी में बदला फिर गायब हो गया। कहने को यह आरक्षित वन का हिस्सा है पर छंटनी के बहाने पेडों को इस तरह घायल किया जा चुका था कि वह हवा के हल्के झोंके से गिर जाएं। नए मोटर पथ के निर्माण के लिए चट्टाने तोड़ी और पेड़ काटे जा रहे थे। गला कई जगह सूखा पर कोई सोता, धारा, नजर नहीं आया। नौला या घट तो बहुत दूर की बात है। शुरू में मिश्रित वन था जो जल्दी चीड की रियासत में बदल गया। साथी अनूप साह और वन निगम के अवकाश प्राप्त अधिकारी पांडे बडे शौक से औषधीय वनस्पतियां दिखला रहे थे और सुंदर खलीज पक्षी भी। यह नुमाइशी नजारा भी जल्दी खत्म हो गया। जब भी किसी छोटे से गांव का रुख किया तो आलू के चिप्प्स, नमकीन , गुटके के पैकटों का कचरा ही रास्ता दिखाता था। जिस सफर में कभी करीब दो दिन लगते थे वह आज तीन-चार घंटे में निबट जाता है। जल्दी में हों तो बिना रास्ते में कहीं रुके। जितनी बार यह ‘यात्रा’

होती है कुछ बदला लगता है। सड़क के किनारे भवन निर्माण वर्जित करने वाले कानून की धज्जियां उडाती दूकानें और बहुमंजिलें मकान पैदल यात्रा के एक पडाव से दूसरे पडाव की पहचान को धुंधला चुके हैं। घर से खाना ले कर चलने की जरूरत नहीं न ठंडे-मीठे पानी के सोतों- धारों की तलाश बाकी है। हर मोड पर बोतलबंद पानी और मशहूर कोल्डड्रिंक थोक के भाव ललचाते हैं। गरमपानी-छडा पर जो ढाबे पहले पूड़ी आलू फिर कढी राजमा चावल गर्व से खिलाते थे सुनसान हैं। ‘मैगी पौंइट’ भी सीजन में ही गुलजार होते हैं। भीड़-भडक्के तथा ट्रैफिक जैम से बचने के लिए जो ‘बाय पास’ बनाए गए हैं वह बस्ती से किनारा काट कर ही अपना नाम सार्थक कर सकते है अतः अल्मोडा हो या कोई और कस्बा दर्शनीय स्थल भी यात्री की नजर से ओझल होते जा रहे हैं। भूगोल बदलने के साथ स्थानीय इतिहास का ज्ञान लुप्त होता जा रहा है। साझे की विरासत का अवमूल्यन पर्यावरण को अनायास पर घातक रूप से संकट ग्रस्त बना चुका है। कुछ वर्ष पहले जोरदार बारिश के बाद जो भूस्खलन हुए उन्होंने उत्तराखंड में प्रलय का दृश्य दिखला दिया।भुवाली से अल्मोडा तक का मोटर मार्ग कई महीने अवरुद्ध रहा। बद्री केदार यात्रा पथ की तबाही का मंजर तो और भी अधिक दिल दहलाने वाला था। इस बात को नकारना कठिन है कि यात्राओं को ‘सुखद’और ‘लाभप्रद’ बनाने के लालच में हमने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी ही मारी है। असली सवाल हम कब तक टालते रहेंगे कि हम कोई भी यात्रा क्यों करते हैं? क्या गैर जरूरी यात्राएं सीमित संसाधनों की फिजूल खर्ची को ही नहीं बढ़ातीं? जो यात्राएं शौक के लिए की जाती हैं क्या उन्हें तेज रफ्तार से मशीनीकरण के बिना नहीं तय किया जा सकता? एक अंग्रेज कवि की पंक्ति है- ‘मंजिल तक पहुच ं ने से कहीं सुखद अनुभव होता है रास्ते से गुजरना!’ जो यात्राएं लीक से हट कर अनजानी राहों पर संपन्न होती हैं उनका आनंद अतुलनीय, अनिर्वचनीय होता है। डेविड फ्रौस्ट की ‘दि रोड लैस ट्रैवले ्ड’ इसी की तरफ इशारा करती है। अज्ञेय की अनेक मार्मिक कविताएं भी यात्रा के सम्मोहक संसार का अविस्मरणीय सृजन करती हैं- ‘कितनी नावों में कितनी बार’ या ‘अरे! यायावर रहेगा याद!’। वास्तव में हर यात्रा बाहरी दुनिया के साथ ही नहीं हमारे अंतर्तम से भी हमारा नाता जोड़ती है, मजबूत करती है ‘यादें’ बनाती हुई और ताजा कर। तीर्थ यात्राएं यही असली पुण्य अर्जित करती हैं। यात्रा के अनुभव का साझा ही असली प्रसाद वितरण है। अतः ‘चरैवेति!’ सैर करिए, सफर पर निकलिए पर जिम्मेदारी के साथ। हम सफर मनुष्यों के साथ बाकी पशु-पक्षियों वनस्पतियों के सहअस्तित्व को ध्यान में रखते हुए। www.downtoearth.org.in | 29

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आवरण कथा

दुधारी नदी का सुख-दुख नदियों के साथ बरती गई नासमझी से रूबरू कराती कोसी के संग-संग हफ्ते भर की यात्रा

को

कोसी सुपौल सहरसा खगड़िया

बिहार

अर्चना यादव नदियां हमारे जीवन का दर्पण हैं। नदियों की तरह हमें भी तंग नजरिए से मुक्त होकर जीवन के प्रवाह को विस्तार देते रहना चाहिए

फोटो: विकास चौधरी

गंगा

सी शायद अकेली ऐसी नदी है, जिसे मां और डायन दोनों कहा गया है। दिनेश कुमार मिश्र, जिन्होंने बिहार की नदियों का बरसों अध्ययन किया है, का इशारा कोसी के दोहरे स्वाभाव की तरफ है। यह नदी जीवन और जमीन का सिंचन भी करती है और विनाश भी। यूं तो हिमालय से भारत के कंधे पर उतरने वाली अधिकतर नदियों का यही स्वभाव है, पर कोसी जिस रफ्तार से अपना रास्ता बदलती है और उफनकर रेत उड़ेलती है, उसका डर जनमानस में गहरे तक समाया है। मैं कोसी के बिहार में प्रवेश करने से ठीक पहले नेपाल में बने कोसी बराज पर खड़ी हूं। एक तरफ कुछ मछुआरे चमकती धूप में हथेलीभर लंबी सफेद मछलियां पकड़ रहे हैं। दूसरी तरफ नाविक नदी में बहकर आईं लकड़ियां ढोकर ला रहे हैं। ये लकड़ियां पहाड़ों पर फैले जंगलों की हैं, जिन्हें कोसी अपने वेग से उखाड़कर बहा लाई है। कोसी का उद्गम तिब्बत से होता है। नेपाल में सात नदियों के मिलने से बनी कोसी को सप्तकोसी कहा जाता है। ये नदियां हिमालय में एक विशाल क्षेत्र से जल ग्रहण करती हैं। इस जलग्रहण क्षेत्र की विविधता के बारे में नेपाल के जल विशेषज्ञ अजय दीक्षित बताते हैं कि उत्तर से दक्षिण की तरफ 150 किलोमीटर के दायरे में छह प्रकार के जलवायु क्षेत्र और भूवैज्ञानिक खंड आते हैं, जिनकी ऊंचाई 8 हजार मीटर से लेकर महज 95 मीटर के बीच है। इनमें तिब्बत के पठार, हिमालय के शिखर, मध्य हिमालय के क्षेत्र, महाभारत श्रृंखला, शिवालिक पहाड़ियां और तराई का इलाका शामिल है। आठ हजार मीटर से भी ऊंची एवरेस्ट सहित आठ पर्वत चोटियां, 36 ग्लेशियर और 296 हिमनद झीलें भी इस जलग्रहण क्षेत्र में स्थित हैं। इन कच्ची पहाड़ियों में जब पानी बरसता है तो ढेर सारी मिट्टी कटकर नदी में बह जाती है। कोसी जब तलहटी से निकलकर खुले मैदान में प्रवेश करती है तो अपने साथ लाई इस गाद को पंखे के आकर के एक विशाल क्षेत्र में फैला देती है। मेरा इरादा इस 180 किलोमीटर लंबे और 150 किलोमीटर चौड़े कछार से गुजरते हुए नदी के साथसाथ चलने का है।

सुख के माथे बल पड़े

इस तरह हम नेपाल से सटे सुपौल जिले में प्रवेश करते हैं। नदी के दोनों ओर 10 किलोमीटर की दूरी पर मिट्टी के तटबंध बने हुए हैं। इन तटबंधों को बाढ़ रोकने के लिए 1959 में बनाया गया था। कार्तिक का महीना है। तटबंध के बाहर मीलों तक हरे धान के खेत फैले हैं। बीच-बीच में लंबे-लंबे बांसों के झुंड। तटबंधों के समीप पटेर और कांस की झाड़ियां। बाढ़ के पानी से बने तालाबों में कहीं कोई आदमी पटसन के गट्ठर खींच कर ला रहा है तो कहीं बच्चे और औरतें दिवाली से पहले घर की लिपाई के लिए मिट्टी खोद रही हैं। जैसे ही मैं लोगों से बात करती हूं, उनकी बातों में नदी का दर्द उभर आता है।

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हरल-भरल छल छई बाग-बगीचे सुना कटोरा खेत देख-देख मोरी आफतई है सबरे बालू के ढेर अस्सी साल के रमेश झा यह गीत गाकर कोसी के बारे में बताते हैं। कोसी के मैदान में उनकी जमीन थी। तटबंध बनने पर उन्हें खेतों से दूर सुपौल कस्बे में बसाया गया। वे बताते हैं कि कोसी ने 1938 में सुपौल से होकर बहना शुरू किया। 1723 से 1948 तक कोसी ने अपना रास्ता 160 किलोमीटर पश्चिम की तरफ बदल लिया था! झा कहते है, “कोसी के आने से पहले यहां पानी की नहीं, दूध की नदियां बहती थीं। यहां का आदमी काम के लिए बाहर नहीं जाता था, बल्कि बाहर से लोग यहां मजदूरी के लिए आते थे।” “कोसी के आने के बाद महामारी शुरू हुई। कोई मर जाता था तो उसे फेंकने वाला भी नहीं होता था।” “तटबंध बनने के बाद तो जिंदगी जेल हो गई। पहले पानी आता था, चला जाता था। धरती उपजाऊ बनी रहती थी। अब तो तटबंध के भीतर जिसके पास 50 बीघा जमीन है वो भी बाजार से खरीद के खाता है। सुख कहां? सुख के माथे बल पड़े!”

सुपौल से कुछ किलोमीटर उत्तर में सरायगढ़ भपतियाही ब्लॉक के कल्याणपुर गांव में पूनम देवी अपने आंगन में बैठी अधपके धान के पौधों से कुछ धान बचाने की कोशिश कर रही हैं। उनके खेत को नदी ने काटना शुरू कर दिया है। इसलिए फसल को पकने से पहले ही काट लाईं। मैने पूछा क्या करेंगी इसका? “क्या करेंगे, मवेशी खाएगा!” दिनेश कुमार मिश्र का कहना है कि ब्रह्मपुत्र नदी के बाद शायद कोसी सबसे ज्यादा गाद भारत में लाती है। जब नदी के तल पर बिछी इस गाद और बालू से कोसी का रास्ता अवरुद्ध हो जाता है तो यह अपने किनारे काटने लगती है और नया रास्ता निकाल लेती है। पूनम देवी बताती हैं, “डेढ़-डेढ़ बांस गहरा कट जाता है। एक-एक कट्ठा जमीन एक बार में पानी में गिर जाती है।” पूनम देवी का घर पूरबी तटबंध के भीतर दो ठोकरों (spurs) के बीच में है जो नदी के तेज बहाव से तटबंध की रक्षा करते है। वे तीस बरस की हैं और उनके पांच बच्चे हैं। उनके पति दिल्ली में मजदूरी करते हैं। कोसी अंचल में तटबंधो का जाल-सा बिछा हुआ है। भपतियाही में कोसी के उत्तरी और पूरबी तटबंधों के भीतर दो और तटबंध हैं जिन्हें गाइड तटबंध कहते

हैं। इनका निर्माण नदी के बहाव को समेटकर कोसी महासेतु के दो किलोमीटर संकरे रास्ते से निकालने के लिया किया गया है। कोसी की सहायक नदियों के किनारे भी तटबंध बने हुए हैं। एक तटबंध से दूसरे तटबंध पर घूमते-घूमते में दिशाभ्रमित हो चुकी हूं। लेकिन इस इलाके के सामाजिक कार्यकर्ता उपेंद्र सिंह कुशवाहा, जिनमें पकी उम्र में भी बच्चों सा जोश है, मुझे अभी एक और तटबंध दिखाना चाहते है: निर्मली रिंग बांध। यह तटबंध सुपौल के सबसे बड़े बाजार की सुरक्षा के लिए चारों तरफ से घेरते हुए बनाया गया था। आज इसे देखकर ऐसा लगता है मानो यह बाजार एक चौड़े गड्ढ़े में बसा हुआ है। एक तरफ कोसी और दूसरी तरफ इसकी सहायक नदी भुतही बालन द्वारा सालों से लाई गई रेत से तटबंध के बहार की जमीन का स्तर ऊपर उठ चुका है। यहां पानी का कोई निकास नहीं है। जब बारिश होती है तो पंप के द्वारा पानी बाहर फेंका जाता है।

जलमग्न जीवन

अब हम सहरसा जिले में प्रवेश करते हैं। तालाबों में कुछ लोग बांस की टोकरियों में मखाने के बीज इकट्ठा कर रहे हैं। तटबंध से बचाए गए खेतों में धान सहरसा में पूर्वी तटबंध के बाहर बेलवारा पुनर्वास गांव जाने के लिए यह धारा पार करनी पड़ती है। इस धारा के कोसी को मिलाने के लिए जो स्लूस गेट बनाया गया था, वह ध्वस्त हो चुका है। इसलिए यह धारा कोसी में नहीं मिल पाती

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आवरण कथा की जगह घास और जलकुम्भी उगी हुई है। जल भराव विकट है। तटबंधों के बाहर दोनों तरफ तीनचार किलोमीटर तक पानी भरा हुआ है। यहां पनपते मच्छरों से बचाव के लिए कई लोग अपने मवेशिओं को भीमकाय मच्छरदानियों में रखते हैं। नदी के प्रवाह से छेड़छाड़ का पासा कुछ उल्टा पड़ गया है। पचासों साल से लाई हुई गाद और बालू से दोनों तटबंधों के बीच नदी का तल काफी ऊपर उठ गया है। तटबंध पर खड़े होकर देखने से साफ पता चलता है कि नदी ऊंचे भू-स्तर पर बह रही है। नतीजतन नदी का पानी मिट्टी के तटबंधों से रिसकर आस-पास के खेतों में फैल जाता है। तटबंध एक तरफ नदी की गाद और बालू को बाहर नहीं फैलने देते और दूसरी तरफ बाहर बहती धाराओं और बरसात के पानी को नदी में नहीं मिलने देते। पश्चिमी तटबंध के बाहर तो स्थिति और भी बदतर है। यहां कोसी और उसकी सहायक नदी कमला बलान के बीच एक बड़ा हिस्सा कहने को तो दोनों नदियों पर बने तटबंधों से सुरक्षित कर लिया गया है, लेकिन यह क्षेत्र दोनों नदियों के जल रिसाव और जल भराव की मार झेलता है। पूरा इलाका एक विशाल झील-सा प्रतीत होता है। लोग नावों में आ-जा रहे हैं। बीच-बीच में गांव टापू से दिखाई देते हैं। ऐसा ही एक गांव है घोंघेपुर। इसके समीप ही पश्चिमी तटबंध समाप्त हो जाता है। ज्यादातर मकान कच्चे, बेतरतीब से। मोहम्मद यूनुस नाम के एक बुजरु ्ग जोर देते हैं कि हम नाव में बैठकर पूरा गांव देखें। यहां कई घर पानी से कुछ दिन पहले ही उबरे हैं। जगह-जगह मिट्टी और बांस की दीवारे धंसी पड़ी हैं। एक आदमी गाय को जलकुम्भी खिला रहा है। यह गाय के लिए हानिकारक है। “क्या करें? यहां यही उगता है।” घूंघट निकाले एक औरत बताती है कि तीन महीने कमर तक पानी था। “स्कूल की कुर्सियां भी पानी में थीं। बरसात के दिनों में खाना चौकी पर बनाना पड़ता है। कुछ लोग सत्तू फांक के रहते है। जिसके पास सत्तू भी नहीं होता वो भूखे रहते हैं।”

चंचल हमें दिखाते हैं कि कैसे वे पानी को साफ करते हैं। उन्होंने एक स्टील के ड्रम में रेत और चारकोल भर दिया है और इसके निचले सिरे पर एक नल लगा दिया है

दशहरा के बाद से पानी घटना शुरू हो जाता है। लेकिन खेत जनवरी-फरवरी तक ही सूख पाते हैं। इसलिए बुवाई के लिए थोड़ा ही समय मिलता है। मैंने पूछा, “फिर कमाई के लिए क्या करते हैं?” वे कहती हैं, “देखते नहीं आस-पास! यहां कोई क्या कर सकता है? ज्यादातर लोग काम करने बाहर चले जाते हैं।” कोसी अंचल का यह इलाका देश के अति पिछड़े क्षेत्रों में आता है। बिहार से सबसे अधिक लोग दूसरे राज्यों में पलायन करते हैं। एक अनुमान के मुताबिक, 45 से 50 लाख बिहारी मजदूर दूसरे राज्यों में काम करते हैं। इनमें बड़ी तादाद कोसी अंचल के लोगों की है। मिश्र द्वारा इकट्ठा किये गए आंकड़ों के अनुसार, कोसी के आसपास की 306,200 हेक्टेयर जमीन जल भराव से प्रभावित है। जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा कोसी के दोनों तटबंधों के भीतर नदी के पेट में भी रहता है। मिश्र का अनुमान है कि लगभग 10 लाख लोग तटबंधों के बीच फंसे 380 गांवों में रहते हैं। यहां कोसी कहीं रेत बिछा कर नए टापू बना रही है तो कहीं जमीन निगल रही है।

तटबंधों की कैद में

मेरी जिज्ञासा तटबंधों के बीच का इलाका देखने में है। महिषी गांव की संस्था कोसी सेवा सदन के सचिव राजेंद्र झा इस इलाके को अच्छे से जानते हैं। एक समय उन्होंने यहां के डकैतों का आत्मसमर्पण करवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। मेरे अनुरोध पर वे मुझे कोसी के पेट में ले जाने को तैयार हो जाते हैं। महिषी से कुछ किलोमीटर दक्षिण पूर्वी तटबंध के पास बाबा कारू धाम से हम डीजल से चलने वाली एक बड़ी-सी नौका में बैठते हैं। चटक धूप खिली है। नदी के पार रेतीला मैदान दीख पड़ता है। दस मिनट में हम पार आ जाते हैं। कुछ और नावें वहां पहुंचती हैं। एक-एक नांव पर बीस-बीस लोग घास के गट्ठरों और साइकिलों के साथ सवार हैं। एक पर मोटरसाइकिल भी लदी है। जुते हुए खेतों और कांस की झाड़ियों से होते हुए हम बघौर गांव पंहुचते हैं। यहां हमारी भेंट 83 वर्षीय अच्छी कद-काठी वाले जगदीश सिंह से होती है। वो ऊंचा सुनते है पर उनकी याददाश्त तेज है। वे बताते हैं कि वे यहां से तीन किलोमीटर दूर बाबा कारू धाम के पास रहा करते थे। सत्तर के दशक में नदी ने उनके गांव को निगलना शुरू किया। “जैसे-जैसे जमीन कटती जाती, हम पीछे हटते जाते। हटते-हटते हम यहां आ गए। सन 1977 और 1987 के बीच हम पांच-छह बार विस्थापित हुए।” हमारे आसपास कई और लोग इकट्ठा हो जाते हैं। वे बताते हैं कि हम पांच किलोमीटर चौड़े और 25 किलोमीटर लंबे एक टापू पर हैं, जिसके सब ओर से नदी की धाराएं हैं। “इस टापू पर बहुत-से गांव होंगे।” बघौर में प्राइमरी स्कूल और आंगनबाड़ी

तो है पर कोई स्वस्थ्य केंद्र नहीं। न ही इस गांव में बिजली पहुंची है। कुछ लोगों ने सरकारी मदद से सोलर पैनल लगाये हुए हैं। लोग बताते हैं कि यही हाल इस टापू के बाकी गावों का है। सारे सरकारी दफ्तर, बैंक, पुलिस स्टेशन तटबंधों के बहार हैं। बघौर निवासी चंचल कुमार सिंह कहते हैं, “हमारी जिंदगी ऐसे है जैसे बत्तीस दांतों के बीच में जीभ। कहीं भी जाने के लिए हमें नदी पार करनी पड़ती है, जो बरसात में ढाई किलोमीटर चौड़ी हो जाती है। यहां के पानी में इतना आयरन है कि आप पी नहीं सकते। इस पानी से आप कपड़े धोएंगे तो कपड़े भी पीले पड़ जाएंगे।” चंचल हमें दिखाते हैं कि कैसे वे पानी को साफ करते हैं। उन्होंने एक स्टील के ड्रम में रेत और चारकोल भर दिया है और इसके निचले सिरे पर एक नल लगा दिया है। “इससे एक दिन में 40 लीटर पानी साफ हो जाता है।” हम पास के बिरवार गांव पहुंचते हैं। वहां भी विस्थापन के वही किस्से, वही पीड़ा। यहां से पास के घाट तक जाने के लिए हमें तीन छोटी धाराएं पार करनी हैं। हम अपने जूते हाथ में लेते हैं, पतलून की टांगें ऊपर चढ़ाते हैं और गाद भरे उथले पानी में पैर डाल देते हैं। घाट पर दो दर्जन लोग नाव का इंतजार कर रहे हैं। बीच नदी में नाव रूक जाती है। यहां पानी उथला है। चार लोग तुरंत पानी में कूद

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सुपौल में दोनों तटबंधों के बीच बने अपने घरों को लीपने के लिए मिट्टी खोदकर लाते बच्चे

पड़ते हैं और नाव को धक्का लगाकर गहरे पानी में ले आते हैं। तटबंध पर वापस आने के बाद हम दक्षिण की तरफ चलते हैं। कुछ ही किलोमीटर दूर तटबंध के बाहर की तरफ कुछ औरतें एक भरी हुई नाव पर चढ़ने की जल्दबाजी कर रही हैं। यहां एक धारा कोसी में मिलती थी, जिसका रास्ता तटबंध ने रोक दिया है। ये औरतें इस धारा के पार बेलवारा पुनर्वास गांव जाना चाहती हैं। इस गांव में लोगों को तटबंध के भीतर से बाहर लाकर बसाया गया था। इस धारा को नदी में बहने के लिए जो स्लूस गेट बनाया गया था, वह 1984 की बाढ़ के दौरान पानी के वेग से ध्वस्त हो गया। झा कहते हैं, “ये तटबंध बम की तरह हैं। कहीं भी फट सकते हैं।” ऐसा आठ बार हो चुका है, जब तटबंध टूटने से बाढ़ आई है। सुपौल में नेपाल सीमा के समीप कुशवाहा ने मुझे वो जगह दिखाई जहां से होकर कोसी ने 2008 में, नेपाल में तटबंध तोड़ने के बाद बहना शुरू कर दिया था। उस जगह को देखकर लगता था मानो किसी ने हरे-भरे खेतों और जंगलों में तीन किलोमीटर चौड़ा बेलन चला दिया हो। रास्ते में जितने भी पेड़ पौधे आए कोसी ने सब उखाड़ दिए और रेत बिछा दी। मिश्र का कहना है,“सबसे बड़ी क्षति यह है कि आपने नदी का धर्म भ्रष्ट कर दिया है। नदी का धर्म

है, अपने आसपास के इलाके के पानी को निकास देना।” कोसी पर लिखी अपनी किताब ‘दुई पाटन के बीच में’ में वे लिखते हैं कि जलभराव और दोनों तटबंधों के बीच की जमीन मिलाकर 426,000 हेक्टेयर होगी। यानी बाढ़ से जितनी जमीन की सुरक्षा के लिए कोसी तटबंध बने थे, अब उससे दुगनी जमीन को इन तटबंधों से खतरा है!

इरादों का पुल

दक्षिण की तरफ बढ़ते हुए हम खगरिया जिले के बेलदौर ब्लॉक में प्रवेश करते हैं। आगे बढ़ने के लिए हमें नदी पार करनी है, पर डुमरी घाट पर बने दोनों पुल ध्वस्त हैं। पहला पुल 1991 में बनाया गया था। इस पुल के बनने से पहले बागमती नदी यहां से एक किलोमीटर की दूरी पर बहती हुई कुछ दूर आगे जाकर कोसी में मिलती थी। लेकिन शायद पुल का खर्च कम रखने के लिए पुल की लंबाई छोटी रखी गई और बागमती को डुमरी पर ही कोसी में मिलने को विवश कर दिया गया। दोनों नदियों का वेग साल 2010 में पुल के कई स्तम्भ बहा कर ले गया। तब सरकार ने एक और पुल बनवाया। इसे लोहे से मजबूत किया गया। लेकिन 2012 में यह भी ध्वस्त हो गया। ऐसे में बेलदौर के कुछ नाविकों को सूझा, क्यों न अपनी बड़ी-बड़ी नावें जोड़कर एक पुल बनाया

जाए जिससे सहरसा और खगरिया के बीच संपर्क बना रहे। फिर क्या था, उन्होंने ट्रक जितनी लंबीचौड़ी नावें जोड़ी और उन पर बांस की सड़क-सी बिछा दी। इस पर से वाहन पार होने लगे। यह पुल पानी घटने पर जनवरी में तैयार किया जाता है और बरसात से पहले मई में हटा दिया जाता है। हम इस पुल को तो नहीं देख पाए लेकिन हमारी मुलाकात उन दो नाविकों—बजरंग सैनी और कारे सैनी—से हुई जिन्होंने पुल निर्माण की अगुवाई की थी। बजरंग सैनी चैक का कुर्ता और लूगं ी पहने हुए हैं। कंधे पर अंगौछा है। वे बताते हैं उन्होंने आसपास के नाविकों को इकट्ठा करना शुरू किया जो गंगा में नाव चलाया करते थे। अधेड़ उम्र के बजरंग सैनी ने सारी उम्र फरक्का तक नाव चलाई है, इसलिए कई नाविकों को जानते है। वे कहते हैं, “पहले साल हमने 42 नावों को चार फीट की दूरी पर जोड़कर पुल बनाया। हमे लगा ये दूरी कुछ ज्यादा है, सो अगली बार हमने दुगनी नावें एक फुट की दूरी पर जोड़ी।” पुल बनाने की यह कहानी सुनने के बाद हमनें अपनी स्कौर्पियो गाड़ी डीजल इंजन से चलने वाली विशाल नाव पर चढ़ाई और नदी पार की। अब हम यात्रा के अंतिम पड़ाव कुर्सेला की तरफ चलते हैं, जहां लगभग 700 किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद कोसी चुपचाप गंगा में समा जाती है। यहां सामाप्त यात्रा अंतर्मन में जारी रहेगी! www.downtoearth.org.in | 33

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आवरण कथा

कीकर-आक के पार, काचरी-काकडी का स्वाद राजस्थान के रेतीले इलाके में देसी फल-सब्जियों का स्वाद टटोलती एक दिलचस्प यात्रा

बीकानेर जैसलमेर

राजस्थान

विभा वार्ष्णेय मुझे लगता था कि राजस्थान जैसी कठिन परिस्थितियों में रहने वाले लोगों को भोजन की तलाश में काफी समय बिताना पड़ता होगा। लेकिन उनकी यात्राएं छोटी होती हैं। वे खाने की चीजों को संभाल कर रखते हैं, ताकि साल भर उनकी जरूरतें पूरी होती रहें

फोटो: भास्करज्योति गोस्वामी

वो

जगह एकदम उजाड़ थी। हर तरफ रेतीली, पथरीली जमीन। जो सड़क हमें बीकानेर जिले के कोलायत ब्लॉक तक ले जा रही थी, उसके दोनों ओर कीकर और आक दिखाई पड़े थे। लेकिन हमारे लिए यह बहुत उत्साहजनक नजारा नहीं था। तीन दिन की यात्रा में हम राजस्थान के पारंपरिक या कहें देसी भोजन के बारे में जानने निकले थे। ऐसी चीजें जिन्हें यहां के लोग सदियों से उगा और खा कर रहे हैं। लेकिन अभी तक हमें बस कीकर और आक के पेड़ ही दिख रहे थे। कीकर को तो बकरियां भी नहीं खाती हैं और आक भोजन से ज्यादा औषधि के तौर पर जाना जाता है। इसी उधेड़बुन के साथ हम बीकानेर से 90 किलोमीटर दूर कोलायत तहसील के भेलू गांव पहुंचे। यहां एक जगह है गोदारो की ढाणी। यह 30 बीघा बेतरतीब-सी जमीन चार भाईयों की हैं। हमारी मुलाकात उन्हीं में से एक भाई बाबूराम से हुई। बाबू राम अपनी कुर्सी पर बैठा एक छोटा, धारीदार फल छील रहा था। आसपास बिछी चारपाईयों पर यह कच्चा फल सूखने के लिए पड़ा था। यह काचर नाम का फल था, जो खरबूजे से मिलता-जुलता फल है और स्वाद में थोड़ा खट्टा होता है। इस इलाके में काचर का इस्तेमाल आमचूर की तरह होता है। बाबूराम इन फलों को सुखाकर व्यापारियों को बेचता है। ये व्यापारी इसका पाउडर, जिसे काचरी कहते हैं, बनाकर शहर के बाजारों में बेचते हैं। हमने बाबू राम से वह पौधा दिखाने के लिए कहा जिन पर काचर उगता है। बाबूराम और बच्चे, शैतान और मोती हमें खेत में लेकर गए। यह बेल खेत में अपने आप उग जाती है। इसमें सैकड़ों बीज होते हैं और एक भी फल खेत में रह जाए तो अगले साल खुद-ब-खुद उग जाती है। घूमते-फिरते हमें एक बात और पता चली कि काचर यहां उगने वाला एकमात्र फल नहीं है। तपती दोपहर में हम जैसे ही खेत में पहुच ं ,े हमें रस भरी काकडि‍या भी मिले। इन्हें भी काचर की तरह सुखाकर रख लिया जाता है। शैतान और मोती हमारे लिए खेत से कुछ जंगली टिंडा (टिंडसी) भी ढूंढ़ लाए। इस

फल को भी काटकर-सुखाकर रखा जाता है ताकि बाद में सब्जी की तरह इस्तेमाल किया जा सके। इसके बाद हम पास के खेत में गए, जहां हमें कुम्बट का पेड़ देखने को मिला। चूंकि, इसका मौसम गुजर चुका था, इसलिए इस पर फल ज्यादा तो नहीं थे पर कुछ शाखाओं से कुछ फलियां लटक रही थीं। इन फलियों के बीजों को कुमटिया कहते हैं। इनके साथ-साथ हमने खट्टे लाल बेर भी खाए। काफी घूमने-फिरने के बाद थक कर हम खेजरी के पेड़ के नीचे पानी पीने बैठ गए। पास में ही एक औरत ग्वार फली इकट्ठा कर रही थी। परिवार में सबसे बड़े भाई बुद्धाराम, जो हमारे लिए पानी लाए थे, उन्होंने बताया कि पहले जब इस इलाके में सूखा पड़ता था, तो खेजड़ी के पेड़ की छाल को पीसकर उसका इस्तेमाल आटे की जगह किया जाता है। सूखे की सबसे ज्यादा मार खाने-पीने की चीजों पर पड़ती थी और ऐसे में खेजड़ी की छाल जैसी चीजें खाने के अलावा कोई उपाय नहीं बचता था। बहरहाल, तपती दोपहर में हम अपने मेजबानों के घर पहुंचे और उन्होंने हमें भोजन करने को कहा। जितनी देर में खाना आता, उस बीच हमें थोड़ी और काकडी और मतीरा खाने को मिला। ये देसी तरबूज दिल्ली के तरबूज जितना लाल व मीठा नहीं था और इसे सब्जी की तरह भी पकाया जा सकता है। इस बीच खेत से आई ताजी मूंगफली भी भुन चुकी थी। गुड़ वाली मीठी चाय के साथ हमने इनका स्वाद भी चखा। इसके बाद हमें बाजरे की बड़ी-बड़ी रोटियों के साथ ग्वार और काचर की मसालेदार सब्जी और दही परोसा गई। ऐसी ठेट दावत कहां मिलेगी!

भारी पड़ा फसलों का गणित

ये चीजें मानसून पर निर्भर इस इलाके की खेतीबाड़ी का अहम हिस्सा रही हैं। ज्वार, बाजरा और ग्वार यहां की प्रमुख फसल हैं। लेकिन यह परिवार सिंचाई के नए साधन अपना चुका है और अब अन्य फसलें भी उगा रहा है। इस बार इन लोगों ने व्यापार के लिहाज से मूंगफली की खेती की है। पिछली बार प्याज भी उगाई थी। वाणिज्यिक खेती में मुनाफा ज्यादा है इसलिए यह परिवार इसे तेजी से अपना रहा

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गोदारों की ढाणी (बीकानेर) में काचर और काकडिया काट रहीं महिलाएं। इन फलों को सुखाकर रखा जाएगा ताकि बाद में बाजार में बेचा जा सके

है। काचर और इसके बीजों से होने वाली करीब आठ हजार रुपये की कमाई के मुकाबले इस साल लगभग मूंगफली से उन्हें पांच लाख रुपए और ग्वार से 50 हजार रुपये की आमदनी होने की उम्मीद है। इस रेतीले, शुष्क इलाके में हमारे लिए बहुत कुछ नया था, जिसे देखने-समझने के लिए हम भेलू गांव से पूरब की ओर नोखड़ा गांव की तरफ बढ़े। यह क्षेत्र केर नामक फल के लिए जाना जाता है। यहां हमारी मुलाकात 50 वर्षीय नारायण सिंह से हुई जो पिछले तीस साल से केर के फलों का व्यापार कर रहे हैं। इस कंटीले पेड़ से फल इकट्ठे कर महिलाओं और बच्चों को रोजगार मिल जाता है। निजी और सामुदायिक दोनों तरह की भूमि से ये केर प्राप्त कर लेते हैं। नारायण सिंह गांव के उन चार लोगों में से हैं, जो 60 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से इनसे केर खरीदते हैं। कड़वापन दूर करने के लिए इन फलों को कुछ दिनों नमक के पानी में रखा जाता है। बाद में ये फल 100 रुपए किलो तक बिकते हैं। इनके खरीदार आकार पर विशेष ध्यान देते हैं और सबसे छोटा फल सबसे महंगा बिकता है, क्योंकि उनमें बीज नहीं होते । नोखड़ा गांव के लोगों ने हमें खाने-पीने की और भी कई पारंपरिक चीजों के बारे में बताया। ऐसा ही एक कंटीला बीज है भुरूट। अकाल के दिनों में इसे भी आटे के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। इसके अलावा हमें फोग के पेड़ के बारे में भी पता चला जो वहां तो नहीं दिखा, लेकिन हमें बताया गया कि जैसलमेर के रास्ते में इसके काफी सारे पेड़ मिल जाएंगे। गर्मियों में इसके फल और फूलों का इस्तेमाल

रायता और कढ़ी बनाने में किया जाता है। अगले दिन हम लोग जैसलमेर के लिए निकल गए। वहां हम शहर से कुछ पांच किलोमीटर दूर चुडं ी नाम के गांव में पहुच ं ।े यहां हमारी मुलाकात 75 बीघा जमीन के मालिक 25 साल के खेवड़ा से हुई। हालांकि, उसे फोग के पेड़ के बारे में नहीं मालूम था, लेकिन उसने इलाके में उगने वाली खाने-पीने की कुछ जंगली चीजों के बारे में हमें बताया। उनकी रसोई में टुम्बा के दुर्लभ बीज भी थे। आमतौर पर टुम्बा का फल जानवरों को खिलाने के काम आता है। लेकिन उन्होंने इन बीजों को अच्छी तरह उबालकर इंसान के खाने लायक बना दिया था। खेवड़ा की पत्नी ने हमें बताया कि वे बाजरा के आटे में इन बीजों को मिलाकर

आमतौर पर टुम्बा का फल जानवरों को खिलाने के काम आता है। लेकिन जैसलमेर के लोगों ने इन बीजों को अच्छी तरह उबालकर इंसान के खाने लायक बना दिया था

रोटियां बनाते हैं, जो बहुत करारी और पौष्टिक होती है। परिवार के लोगों ने हमें संभाल के रखी खाने-पीने की ऐसी कम से कम 10 देसी चीजें दिखाईं। परिवार के लोगों के लिए ये चीजें बहुत खास हैं। यह बात हमें तभी समझ आ गई, जब नौ साल के महिपाल ने जल्दी से ये पैकेट वापस अंदर रख दिए क्योंकि छोटे बच्चे इन पर झपटने लगे थे। खेवड़ा ने बहुत चाव से हमें पीलू के मीठे फल के बारे में बताया। इस इलाके में बारिश के बाद रेत के टीलों पर जंगली मशरूम भी उगते हैं। इन्हें भी सुखाकर पीस लेते हैं और आटे की तरह इस्तेमाल किया जाता है। हालांकि, हमें उन मशरूमों का स्वाद चखने का मौका नहीं मिला, क्योंकि यहां बारिश कभी-कभार ही होती है पर रिसर्च बताती हैं कि बरसात के बाद यहां 48 किस्म के मशरूम उगते हैं। हमने खेवड़ा से हमें उसके खेत पर ले जाकर खेजरी का पेड़ दिखाने को कहा। वह हमें एक ट्रैक्टर की ट्रॉली में बैठाकर हमें खेत तक ले गया, जो रेत भरकर ले जाने के लिए तैयार खड़ी थी। हालांकि, उसका खेत जमीन एक सूखा टुकड़ा मात्र था लेकिन वहां रेत के खनन से वह काफी पैसे कमा चुका था। यद्यपि इस परिवार को खानपान से जुड़ी कई परंपरागत चीजों की जानकारी थी, लेकिन समय के साथ वे भी कई चीजें भूल चुके थे। परिवार में किसी को भी खीप के बारे में नहीं मालूम था। खीप की फली का इस्तेमाल सब्जी की तरह किया जाता था। लेकिन आज उन्हें सिर्फ यही मालूम है कि उस पेड़ की पतली डंडियों का इस्तेमाल झोपड़ी की छत बनाने या अंतिम संस्कार में किया जाता है। www.downtoearth.org.in | 35

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आवरण कथा भी अब बाजार की फल-सब्जियां उपलब्ध हैं। इसके अलावा स्थानीय चीजें जैसे कुम्बट, केर और सांगरी तो आलू और प्याज से भी मंहगी हैं। कई चीजों के दाम तो सूखे मेवों के बराबर हैं। इन पुरानी चीजों का उत्पादन भी लगातार कम होता जा रहा है। क्योंकि एक ओर जहां खेती के लिए इस तरह के पेड़-पौधे काटे जा रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ खेती व खनन की वजह से नए बीजों को जमने का मौका नहीं मिलता। आज से करीब 50 साल पहले जिस जमीन पर एक क्विंटल (100 किलो) पैदावार होती थी, उस जमीन पर अब मुश्किल से 10 किलो पारंपरिक चीजें उग पाती हैं। इस तरह की फल-सब्जियों को धोने, सुखाने और संभालकर रखने में भी बहुत समय और मेहनत लगती है। हालांकि, ऐसा नहीं है की सभी चीजे लुप्त हो रही है। उदाहरण के तौर पर, आज भी लोग सांगरी, केर और कुमटिया को बड़े जतन से जुटाते है और लंबे समय तक उपभोग के लिए संभालकर रखते हैं। लेकिन फोग, टिंडा, खीप जैसे चीजें तकरीबन गायब हो चुकी हैं। कुछ तो उग ही नहीं रही और कुछ को अब इकठ्ठा नहीं किया जा रहा है।

उम्मीद की किरण

पारंपरिक फल-सब्जियों के बजाय राजस्थान के किसान मूंगफली जैसी नकद फसलों को अपना रहे हैं

पीछे छूटते पारंपरिक स्वाद

यहां से हम पत्थर तोड़ने का काम करने वाले मजदूरों के समुदाय से मिलने निकल गए। यहां हमें अहसास हुआ कि खेवड़ा उन गिने-चुने लोगों में है जो स्थानीय भोजन के बारे में कम से कम कुछ तो जानते हैं। करीब पांच किलोमीटर दूर बेलदारों की ढाणी में आमतौर पर लोग बाजार से लाई सब्जियां ही खाते हैं। भोरा राम नाम के एक नौजवान ने हमें बताया कि इन स्वादष्टि जंगली चीजों को खोजना बहुत मेहनत का काम है और इसमें समय भी बहुत लगता है। ज्यादातर लोग बाजार से सब्जियां खरीद लाते हैं, जबकि आसपास के इलाके में ये आसानी से मिल सकती हैं। लोग एक किलो मशरूम के लिए 200 रुपये खर्च करने को तैयार हैं, लेकिन उसे इकट्ठा करना नहीं चाहते। फिर भी परंपरागत फल-

सब्जियों से हमारा परिचय कराने वाले भगवान राम ने हमसे वादा किया कि अगली बार वे हमें कई अन्य दुर्लभ भोजन खिलाएगा। हालांकि, इस इलाके में केर नहीं मिलता लेकिन वे इस फल से लड्डू बनाने का तरीका बताते हैं। लेकिन उनकी बातों से ये साफ था की ऐसी परंपरागत चीजें आजकल लोगों की रसोई के बजाय उनकी स्मृतियों में अधिक पाई जाती हैं। जोधपुर में स्कूल ऑफ डेजर्ट साइंस के निदेशक एसएम मोहनोत यह जानकार हैरान थे कि हमें आजकल भी लोगों के घरों में इतना पारंपरिक भोजन मिल गया। वह कहते हैं, “अब गांव के लोग अब परंपरागत भोजन पर निर्भर नहीं हैं। यह स्वादष्टि आहार तो बस अतीत की निशानी भर रह गया है।” इस तरह का खानपान बाजारों से दूर मुख्यत: ढाणियों तक ही सीमित है। राजस्थान के छोटे से छोटे गांव में

बीकानेर में ‘उर्मुल’ ट्रस्ट के सचिव और मुख्य कार्यकारी अरविंद ओझा खाने-पीने की कई परंपरागत चीजों के भविष्य को लेकर फिर भी आशान्वित हैं। उनका मानना है कि राजस्थान में पर्यटन बढ़ने से इस तरह की चीजों की मांग बढ़ी है। यहां आने वाले मेहमान ट्रेडीशनल फूड का स्वाद चखना चाहते हैं। वह बताते हैं, “हम अपने स्वयं सहायता समूहों में पारंपरिक भोजन को लोकप्रिय बनाने की कोशिश कर रहे हैं। हम लोगों सिखा रहे हैं कि ग्वार फलियों को सुखाकर रेगिस्तान की जायकेदार नमकीन के तौर पर कैसे बेचा जा सकता है। मेलों में इसे बेचा भी जाने लगा है। इन चीजों की गुणवत्ता बनाए रखने के लिए हम सोलर ड्रायर्स लगाने की तैयारी कर रह हैं। इसके अलावा हम किसानों को लगातार इन पेड़-पौधों के बारे में बता रहे हैं, ताकि ये पेड़ पौधे आगे भी खेतों में बनी रह सकें। खेजरी का पेड़ साल भर में अंदाजन 10 हजार रुपए का फायदा देता है। भोजन के काम आने के अलावा इसकी छाया में फसलें अच्छी उगती हैं और इसकी पत्तियों का इस्तेमाल पशुओं चारे के लिए भी किया जाता है। परंपरागत स्वाद का हमारा तीन दिन का सफर जोधपुर के रेस्टोरेंट में जाकर खत्म हुआ, जहां आलूपूड़ी और चाऊमीन जैसी प्रचलित चीजें परोसी जा रही हैं। यही चीजें तो हमें दिल्ली में मिलती हैं। शायद नोखड़ा गांव के बुजर्गु खेराज राम ठीक ही कहते हैं कि दिल्ली फकीरों का शहर है। जंगल में उगने वाली देसी चीजें हम दिल्ली वालों की किस्मत में कहां! हम उम्मीद ही कर सकते हैं कि राजस्थान के किसान अपने पारंपरिक खानपान को नहीं भूलेंग।े वैसे भी देश में ऐसी बहुत कम जगह हैं, जहां विविधता से भरपूर परंपरागत भोजन आज भी खानपान का हिस्सा है।

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सन्नाटे की गूज ं

यात्रा एक पर्यावरण आंदोलन की, जिसने विकास योजनाओं को देखने, परखने का नजरिया ही बदल डाला



साइलेंट वैली राष्ट्रीय उद्यान

केरल

जेमिमा रोहेकर साइलेंट वैली राष्ट्रीय उद्यान इस तथ्य को प्रतिस्थापित करता है कि जंगल और वहां की जैव-विविधता हमारे लिए अनमोल हैं

ब से मुझे केरल की ‘साइलेंट

वैली’ के बारे में लिखने को कहा गया था, तब से मेरे सामने एक ही सवाल बार-बार आ रहा था। आखिर इस घाटी को साइलेंट वैली क्यों कहा जाता है? ये 90 वर्ग किलोमीटर में फैली हुई सुंदर और हरी घाटी है। इस घाटी का नाम बहुत ही असाधारण और खास है। हमारे देश में 100 से भी ज्यादा नेशनल पार्क हैं, जिनमें ज्यादातर का नाम नदी, पहाड़, मिथकीय किरदारों, जानवरों या भूतपूर्व प्रधानमंत्रियों के नाम पर रखे गए हैं। इन नामों में केवल दो नाम हैं जो उस जगह के अहसास या भाव पर रखे गए हैं, जो नाम रखने की परंपरा को तोड़ते और कल्पनाशील दिखते हैं। इनमें पहला नाम है उत्तराखंड की वैली ऑफ फ्लावर्स और दूसरा बेहतरीन नाम हैसाइलेंट वैली। पर्यावरण पर लिखने वाले वरिष्ठ पत्रकार डैरल डिमॉन्टे ने अपनी किताब ‘स्टॉर्म ओवर साइलेंट वैली’ में भी इसके दिलचस्प नाम के बारे में जिक्र किया है। इस घाटी को पहले सैरन्ध्री नाम से जाना जाता थो, जो पांडवों की पत्नी द्रौपदी का ही दूसरा नाम है। इसके अलावा यहां एक नदी है जिसका नाम पांडवों की मां कुंती के नाम पर है। एक अंग्रेज ने उपनिवेशीय समय में इस अछूती घाटी को खोजा था। उन्होंने पाया कि दूसरी घाटियों में आम तौर पर शाम को जंगलो में झींगुरों की आवाज गूंजती है पर इस घाटी में अंधेरा होने के बाद इस तरह की आवाजें सुनाई नहीं देती। ये इस घाटी की खूबी है।

अल्पख्यात जंगल

साइलेंट वैली हिंदुस्तान के गिने-चुने वर्षावनों में से एक है। डिमॉन्टे अपनी किताब में लिखते हैं कि हम इस घाटी को ‘शोला फॉरेस्ट’ कहें तो ज्यादा बेहतर होगा। (शोला, वनस्पतियों का एक समूह हैं जो सिर्फ दक्षिण भारत के पश्चिमी घाटों की तलहटी में पाई जाती हैं)। ऊंची चोटियों से घिरा यह जंगल इतना घना है कि यहां पहुंचना बेहद मुश्किल है। साइलेंट वैली इतनी निर्जन है कि इसके मुख्य क्षेत्र में इंसान के रहने का कोई लिखित सबूत नहीं मिला है। हालांकि, आसपास के बफर जोन में कुछ आदिवासी लोग रहते हैं। लेकिन इंसान की दखलअंदाजी से यह जंगल लगभग अछूता रहा है, इस बात ने मेरी

उत्सुकता और बढ़ा दी। मैं उस जगह जाने को उत्सुक थी, जो बरसों पहले पर्यावरण बनाम विकास की जबरदस्त बहस का गवाह बना। मैं तमिलनाडू के कोयंबटूर शहर पहुंची और वहां से 62 किलोमीटर दूर साइलेंट वैली नेशनल पार्क के बेस कैंप मुक्काली के लिए मैंने टैक्सी लेने की सोची। अपनी इंग्लिश और टूटे-फूटे तमिल के 20 शब्दों के सहारे मुक्काली जाने के लिए टैक्सी खोजने लगी। लेकिन साइलेंट वैली का नाम लेते ही टैक्सी वालों की भौहें चढ़ जाती और वे कंधा झाड़ लेते। उन लोगों ने इसके बारे में कभी सुना ही नहीं था। मैंने सोचा था कि कोयंबटूर के टैक्सी ड्राइवर बहुत-से पर्यटकों को साइलेंट वैली ले जाते होंगे, लेकिन ऐसा कुछ था नहीं। खैर, इसमें इन लोगों का भी बहुत दोष नहीं है। ग्यारह साल पहले स्टूडेंट के तौर पर मैं आदिवासियों की रिपोर्टिंग करते हुए तीन दिन साइलेंट वैली से कुछ ही दूर आटापाड़ी में रही थी। लेकिन उस समय मैंने पर्यावरण आंदोलनों में इस जंगल के ऐतिहासिक महत्व पर गौर नहीं किया था। लेकिन इसके बारे में इतना लिखे-कहे जाने के बावजूद साइलेंट वैली इतनी अनजान, इतनी अनदेखी-सी क्यों है? इस घाटी की शांति इसके लिए वरदान है या अभिशाप? साइलेंट वैली को बचाने के लिए किए गए आंदोलनों में प्रमुख भूमिका निभाने वाले एमके प्रसाद का कहना है कि उन्होंने साइलेंट वैली के बारे में 1972 में तब सुना जब सरकार कुंती नदी पर बांध बनाने की योजना बना रही थी। उस वक्त वे कोझीकोड में बॉटनी के एक शिक्षक थे। उन्होंने बताया कि सरकार की योजना की खबर के बाद मैं उस घाटी में पहुंचा और देखा कि ये जंगल बहुत ही शांत, दुर्लभ और किसी छेड़छाड़ से बचा हुआ था। अगर इस घाटी में सरकार बांध बना देगी तो कुछ ही सालों में हम इस जंगल को पूरी तरह खो देंगे। बांध बनाने का विचार पहली बार 1920 के दशक में सामने आया था। दरअसल कुंती नदी केरल में 857 मीटर की ऊंचाई से गिरती हुई मैदानों में बहती है, जो बांध बनाने के लिए एक आदर्श जगह है। वैसे भी आजादी के बाद सिंचाई और बिजली उत्पादन के लिए बहुउद्देशीय नदी घाटी परियोजनाओं पर खूब जोर दिया गया। सन 1979 तक भारत सरकार अपने योजनागत व्यय का 14 प्रतिशत हिस्सा बांध और नहरों के निर्माण के लिए आवंटित कर चुकी थी। साइलेंट वैली परियोजना भी इन्हीं में से www.downtoearth.org.in | 37

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आवरण कथा

बफर जोन से गुजरने के बाद साइलेंट वैली नेशनल पार्क के मुख्य क्षेत्र का प्रवेश द्वार। यह राष्ट्रीय उद्यान एक बड़े जन आंदोलन की देन है (ऊपर)। इसी जंगल में सेम के फूल पर बैठा भंवरा (दायें)

एक थी। सरकार कुंती नदी पर 131 मीटर ऊंचा बांध बनाना चाहती थी, जो 240 मेगावॉट बिजली पैदा करता और केरल के पालघाट व मालापुरम जिलों की 10,000 हेक्टेयर जमीन का सिंचन कर सकता था। हालांकि यह परियोजना कभी परवान नहीं चढ़ी।

अद्वितीय मुलाकात

तो कोयम्बटूर में मुझे आखिरकार एक टैक्सी ड्राइवर मिल गया जो मुझे गूगल मैप के हिसाब से मुक्काली ले जाने के लिए राजी हो गया। बहुत जल्दी ही हम तमिलनाडू से केरल जाने वाले आड़े-तेड़े और घुमावदार रास्तों पर चल रहे थे। यहां चारों तरफ केले, नारियल और स्थानीय फसलों के खेत थे। खेतों के चारों तरफ बिजली की फेंस थी ताकि फसलों को हाथियों से बचाया जा सके। तय कार्यक्रम के हिसाब से मुझे अगले दिन नेशनल पार्क जाना था। मैं अपने गाइड मारी से मिलने के लिए बहुत उत्सुक थी। 42 साल के मारी को लोग साइलेंट वैली का इन्साइक्लोपीडिया मानते हैं। वे 15 साल की उम्र से इस हरी-भरी भूल-भुलैया में वन विभाग के अफसरों, शोधकर्ताओं, फोटोग्राफरों और पर्यटकों को घुमा रहे हैं। मारी बहुत थोड़े पढ़े-लिखे हैं और अंग्रेजी बिल्कुल ही नहीं बोलते। लेकिन, अनगिनत पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों और जीव-जंतुओं के वैज्ञानिक नाम उन्हें जुबानी याद हैं। पर्यावरण संरक्षण में अपने योगदान के लिए उन्हें कई

पुरस्कार मिल चुके हैं। मारी के पिता भी साइलेंट वैली के मशहूर गाइड रहे हैं। मारी ने बताया कि बहुत-सी वनस्पतियों के बारे में उन्होंने पश्चिमी देशों के उन वनस्पति विज्ञानियों और प्राणी शास्त्रियों से जाना, जो पिछले इतने बरसों में यहां आते-जाते रहे हैं। “लेकिन विडंबना यह है कि मुझे यह नहीं पता कि बहुत-सी प्रजातियों को मलयालम में क्या बोलते हैं। किसी मलयाली ने मुझे यह सब नहीं सिखाया।” अगली सुबह हम जीप में भरकर जंगल की ओर रवाना हुए। हमारे साथ इलाके के फॉरेस्ट अफसर अमीन अहसान एस. और अनुवाद में मदद के लिए कुछ दोस्त भी थे। जंगल में घुसते हुए मानो हम हरे रंग में डूब रहे थे। मारी ने पेड़ के तनों पर लगाए गए कैमरों की तरफ इशारा किया। अमीन अहसान ने बताया कि इन कैमरों ने यहां पांच बाघों की मौजूदगी दर्ज की है। इस जंगल में अन्य परभक्षियों के अलावा तेंदुए और कम से कम दो काले पेंथर भी हैं। यह जंगल इतना घना है कि जंगली जानवरों का दिखाई देना मुश्किल है। लेकिन साइलेंट वैली के सबसे नामी जानवरों ने हमें निराश नहीं किया। रास्ते में ही हमें पेड़ की डालियों पर झूलते यहां के खास लंगूरों (लॉयन टेल मकैक) के झुंड दिखाई पड़ गया। इन्हें इन प्राइमेट्स को आईयूसीएन ने विलुप्तप्राय घोषित किया हुआ है। 70 और 80 के दशक में यह जानवर साइलेंट वैली बचाओ अभियान का प्रतीक बन गया

फोटो: जेमिमा रोहेकर /सीएसई

था, क्योंकि प्रदर्शनकारियों का कहना था कि बांध बनने से इन लंगूरों का प्राकति ृ क आवास बर्बाद हो जाएगा और इनका अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है। जंगल में आगे बढ़ते हुए हमें मालबार की बड़ी-बड़ी गिलहरी और नीलगिरी लंगूर भी दिखाई पड़े। ये तीनों प्राणी खासतौर पर पश्चिमी घाटों के एेसे घने जंगलों में ही पाए जाते हैं।

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ऐसे छोटे-मोटे और आमतौर पर नजर में न आने वाले जीव-जंतु ही साइलेंट वैली का असली आकर्षण हैं। एक जगह हम 200 साल पुराने कठहल के पेड़ को देखने के लिए ठहर गए। आज भी यह हाथियों, लंगरू ों और पशु-पक्षियों को फल देता है। मैंने पेड़ की चोटी देखने के लिए अपनी गर्दन उठाई लेकिन यह इतना ऊंचा और घना है कि इसकी लंबाई का ठीक-ठीक अंदाजा नहीं लग पाया। अमीन ने बताया कि उष्णकटिबंधीय वर्षावनों में पेड़ 30-45 मीटर ऊंचे और इतने घने होते हैं कि बारिश का पानी से जमीन तक पहुच ं ने में कम से कम आधा घंटा लग जाता है। जैस-े जैसे हम आगे बढ़े, मैं नई-नई चीजों के बारे में पूछती गई और मारी फटाफट मुझे उन चीजों के अंग्ज रे ी और वैज्ञानिक नाम बताते गए। उन्हें पेड़-पौधे, फूल-पत्तियों, मकड़ियां, तितलियां, मधुमक्खियां... हर चीज की जानकारी है। वे इनकी दिलचस्प खूबियों के बारे में भी बताते चल रहे हैं। आगे एक नाग (वाइपर) सड़क किनारे कुंडली मारे बैठा था। इसका रंग ऐसा था कि अगर मारी और अमीन न बताएं तो हम इसके पास से गुजर जाते। आगे चलकर एक बड़ा-सा बाज (सर्पन्ट ईगल) घने पेड़ की शाखा पर बैठा है, जिसकी चौकस निगाहें चारों तरफ देख

के 118 संवहनी पौधे पाए गए हैं। अध्ययन बताते हैं कि साइलेंट वैली पनामा के बारो कोलोराडो द्वीप के ट्रॉपिकल रेनफॉरेस्ट की तरह है, जिसे दुनिया में जैव-विविधता का पैमाना माना जाता है। 1984 में राष्ट्रीय उद्यान घोषित के बाद से यहां वनस्पति और प्राणियों की कई प्रजातियों खोजी जा चुकी है। लाखों साल पुराने इस जंगल में अब भी कई अनजाने जीवजंतु और पेड़-पौधे होंगे! हम घाटी के 30 मीटर ऊंचे मचान पर पहुच ं ते हैं, पहाड़ियों पर बादल तैर रहे हैं, जहां तक भी नजर जाती है हरियाली ही हरियाली है। अक्टूबर का आखिरी हफ्ता है, मारी और अमीन बताते हैं कि अब तक भारी बारिश हो जानी चाहिए थी। वे बताते हैं कि कम बारिश की वजह से जंगल का घनत्व कम हो गया है। बीजों के अंकुरण और वनस्पति पर भी असर पड़ा है। जलधाराओं में प्रवाह सामान्य से कम है। उल्लेखनीय है कि गत अक्टूबर से दिसंबर के दौरान केरल में सामान्य से 62 प्रतिशत कम बारिश हुई है। मारी ने उस क्षेत्र की ओर इशारा किया जहां चार दशक पहले बांध बनाने वाला था। मैंने पूछा, “बांध बन गया होता, तब क्या होता?” मारी बोले, “…तो यह पहाड़ी इलाका होटल और रेस्तरां से अट जाता। कोई हत्यारा ही इस जंगल को तबाह करने की कोशिश कर सकता है। ये किसी इंसान का काम नहीं हो सकता।”

आंदोलन के बीज

रही हैं। धीरे-धीरे अहसास होता है कि यह जंगल एक-दूसरे पर निर्भर हजारों किस्म के जीव-जंतओं ु का अद्भुत ठिकाना है। साइलेंट वैली के पर्यावरण पर जलविद्युत परियोजना के प्रभाव का आकलन करने वाली एमजीके मेनन की अध्यक्षता वाली संयुक्त समिति की 1982 की रिपोर्ट के मुताबिक, यहां सिर्फ 0.4 हेक्टेअर के सैंपल एरिया में 84 किस्म

वनस्पति विज्ञान के शिक्षक एमके प्रसाद भी साइलेंट वैली में हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट के खतरों को भांप चुके थे। वे केरल शास्त्र साहित्य परिषद (केएसएसपी) नाम के एक लोक विज्ञान आंदोलन से जुड़े थे। परिषद की पत्रिका में उन्होंने साइलेंट वैली में बांध निर्माण की योजना के खिलाफ एक लेख लिखा। इस लेख को खूब प्रतिक्रियाएं मिलीं। जल्द ही एक मुद्दा मीडिया और जन सभाओं में चर्चित हो गया। बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी, फ्रेंड्स ऑफ ट्रीज सोसायटी और वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड जैसी संस्थाएं ने भी इस अभियान को समर्थन देना शुरू कर दिया। हालांकि, केरल राज्य विद्युत मंडल ने इस मुद्दे को अपने पक्ष में मोड़ने के भरसक प्रयास किए। तर्क दिया कि परियोजना से उत्तर केरल के इलाकों में बिजली पहुंचगी, जबकि बांध से जंगल का एक छोटा-सा हिस्सा (830 हेक्टेयर) ही डूबेगा। लोगों को यहां तक समझाने की कोशिश की गई कि साइलेंट वैली में दरअसल कुछ भी खास नहीं है! लेकिन ‘साइलेंट घाटी बचाओ आंदोलन’ के समर्थकों ने इन दावों को नकार दिया। तब तक कई प्रोफेसर, वैज्ञानिक और तत्कालीन व पूर्व नौकरशाह अभियान से जुड़ चुके थे। प्रसाद बताते हैं कि ‘दि हिंदू’ और ‘इंडियन एक्सप्रेस’ को छोड़कर मंडल पूरे अंग्रेजी और मलयाली मीडिया को बांध के पक्ष में करने में कामयाब हो गया था। इन्होंने प्रसाद पर अमेरिकी एजेंट होने के आरोप भी लगाए। उन्हें परोक्ष रूप से जान से मारने की धमकियां भी दी गईं।

जैसे-जैसे हम आगे बढ़े, मैं नई-नई चीजों के बारे में पूछती गई और मारी फटाफट मुझे उन चीजों के अंग्रेजी और वैज्ञानिक नाम बताते गए। उन्हें पेड़-पौधे, फूल-पत्तियों, तितलियों हर चीज की जानकारी है इस बीच, सरकार ने जलविद्युत परियोजना से साइलेंट वैली के पर्यावरण पर पड़ने वाले असर को जानने के लिए कई समितियों का गठन किया। विशेषज्ञों ने पहली बार साइलेंट वैली की समृद्ध जैव-विविधता के सर्वेक्षण के लिए वहां का दौरा किया। एक समिति ने पर्यावरण को बचाने के लिए सुरक्षात्मक उपायों का सुझाव दिया, जिसे केरल सरकार ने तुरंत स्वीकार कर लिया। तत्कालीन कृषि सचिव एमएस स्वामीनाथन की अध्यक्षता वाली एक अन्य समिति ने परियोजना को खारिज करने की सिफारिश की। यह लड़ाई अदालतों में भी लड़ी गई। सन 1980 में जब इंदिरा गांधी दूसरी बार प्रधानमंत्री बनीं तो उन्होंने केरल सरकार से बांध का काम तब तक रोकने को कहा, जब तक परियोजना के प्रभाव का पूरा मूल्यांकन नहीं हो जाता। इसका नतीजा यह हुआ कि एमजीके मेनन की अध्यक्षता में केंद्र और राज्य की एक संयक्त ु समिति बनाई गई। अपनी रिपोर्ट में समिति ने कहा कि 830 हैक्टेयर का जो क्षेत्र बांध की वजह से डूबेगा, वह प्राकृति द्वारा संजोये गए नदतटीय पारिस्थितिकी तंत्र का महत्वपूर्ण उदाहरण है। बांध बनने से साइलेंट वैली में लोगों की आवाजाही बढ़ेगी और जैव-विविधता पर बुरा असर पड़ सकता है, जिससे पूरा इको-सिस्टम गड़बड़ा जाएगा। आखिर 15 नवंबर, 1984 को साइलेंट वैली को राष्ट्रीय उद्यान घोषित कर दिया गया। देश के पर्यावरण इतिहास में यह ऐतिहासिक क्षण था। इससे पहले पर्यावरण संरक्षण आमतौर पर वृक्षारोपण तक सीमित समझा जाता था, लेकिन इस आंदोलन ने देश को एक नई दृष्टि दी। विकास योजनाओं की मंजरू ी से पहले पर्यावरण पर इसके असर के मूल्यांकन यानी एन्वायरनमेंट इम्पैक्ट असेस्मेंट (ईआईए) का विचार यहीं से जन्मा और जन सुनवाई अनिवार्य हो गई। प्रसाद कहते हैं, मैं बहुत किस्मत वाला हूं कि ऐसे आंदोलन का हिस्सा बन सका। www.downtoearth.org.in | 39

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आवरण कथा

चिपको की छांव में उत्तराखंड में बहुत कुछ बदल चुका है, लेकिन चार दशक बाद कई इलाकों में चिपको आंदोलन का असर साफ नजर आता है टेहरी गढ़वाल

चमोली

उत्तराखंड

स्निग्धा दास कोई आंदोलन तब तक प्रभावी नहीं हो सकता, जब तक लोग इसकी जरूरत महसूस न करें। लेकिन जैसे ही किसी आंदोलन का प्राथमिक उद्देश्य हासिल हो जाता है, लोग उसे भूलने लगते हैं

फोटो: श्रीकांत चौधरी

हि

मालय के गांवों में महिलाएं

सरकारी परमिट लेकर पेड़ काटने आए ठेकेदारों की कुल्हाड़ियों को चुनौती देती हुई पेड़ों से चिपक गई थीं। इस तरह महिलाओं ने पहाड़ों से जंगलों का सफाया होने से बचाया। चिपको आंदोलन और इसकी अगुवाई करने वाली इन साहसी महिलाओं की पहचान बन चुके प्रतिरोध के इस सरल लेकिन प्रभावी तरीके ने मुझमें हमेशा कौतूहल जगाया है। आज जब मैं इस आंदोलन की जन्मभूमि गोपेश्वर की ओर बढ़ रही हूं तो उत्सुकता और उत्साह से भर चुकी हूं। ऋषिकेश से ली गई टैक्सी जल्द ही भीड़-भाड़ वाले मैदानी इलाकों को पीछे छोड़ ऊंचे पहाड़ों पर चढ़ने लगी। सर्पीली घुमावदार सड़क हर तरफ से पहाड़ों के नजारें दिखाते हुए हमें विशाल हिमालय की ओर ले जा रही है। एक साइनबोर्ड पर लिखा है, “आप पर्वत की गोद में हैं।” लेकिन एक खड़ी पहाड़ी से चिपकी सड़क के किनारे से रेलिंग नदारद देखकर मेरे रोंगटे खड़े हो गए। करीब 15-20 मीटर गहराई पर गंगा अपने पूरे आवेग से बह रही है। कोशिश करती हूं कि मन में कोई बुरा ख्याल न आए और यात्रा के मकसद पर ध्यान लगा देती हूं। मार्च 1973 में शुरू हुए चिपको आंदोलन के बाद चार दशक गुजर चुके हैं। शुरुआत में यह किसानों का आंदोलन था, जिसके मूल में ग्राम स्वराज का गांधीवादी दर्शन था। चिपको आंदोलन का दूसरा पहलू, जिसकी वजह से यह चर्चित हुआ, साधारण और अशिक्षित महिलाओं का नेतृत्व था, जो वनों के साथ इंसान के रिश्तों को भली-भांति समझती थीं। जोशीमठ के पास रेनी गांव में 50 वर्षीय गौरा देवी की अगुवाई में महिलाओं ने पेड़ काटने आए लकड़हारों को खदेड़ दिया था। यह किसी करिश्मे से कम नहीं था। इस आंदोलन ने भारत और दुनिया भर में पर्यावरण-नारीवाद (इको-फेमिनिज्म) को प्रेरणा दी। लेकिन क्या इससे उत्तराखंड की महिलाओं को भी मुक्ति मिल पाई? सवाल है आज की पीढ़ी जंगलों के साथ कैसा जुड़ाव महसूस करती है? क्या जंगलों के प्रति सरकार का नजरिया बदला? जब टैक्सी ने

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देव�याग में गंगा को पार िकया और इसमें िमलने वाली अलकनंदा क� घुमावों क� साथ-साथ आगे बढ़ी तो मेरे मन में यही सवाल उठ रहे थे। ितब्बत सीमा से लगे चमोली िजले में �वेश करते ही नजारा बदलने लगा। पहाड़ ऊ�चे हैं, जंगल ज्यादा घने और सड़क� ती� चढ़ाई वाली। जब मुझे गोपेश्वर नजर आया तो सूरज ढलने वाला था। वहां मैं चंडी �साद भट्ट से िमली, जो उस आंदोलन क� संस्थापक थे िजसने सत्तर क� दशक में उत्तर �देश का िहस्सा रहे उत्तराखंड में एक लहर पैदा की। पहली बार यही आंदोलन पयार्वरण को राजनीितक िवमशर् क� क�� में लाया और देश में पयार्वरणवाद की समझ को गढ़ने में अहम भूिमका िनभाई। हालांिक, भट्ट अपना प�रचय सव�दय आंदोलन क� कायर्कतार् क� रूप में देना पसंद करते हैं, जो सबक� उदय, सबक� िवकास क� िलए काम करता है। िचपको आंदोलन क� �भाव क� बारे में बताने से पहले वे हमें गोपेश्वर और मंडाल घाटी- जो अलकनंदा घाटी का ही एक िहस्सा है- घूम आने की सलाह देते हैं।

बांज की पौध क� संग नया अध्याय

मंडल घाटी की चेता देवी को पहले सुबह ४ बजे उठकर पहाड़ क� ढलान पर उगी घास लाने क� िलए जाना पड़ता था और लौटने में दोपहर हो जाया करती थी। अब �ामीणों ने गांव क� खाली पड़ी जमीन पर जंगल उगा िलया है, इसिलए चेता देवी को अब चारे क� िलए दूर नहीं जाना पड़ता

समु� तल से 1,550 मीटर की ऊ�चाई पर �स्थत करीब एक लाख की आबादी वाला गोपेश्वर शहर पहाड़ों में दूर तक फ�ला है। मकानों और पेड़ों की कतारें तेज ढलान वाली, घुमावदार डामर की साफसुथरी सड़क क� साथ-साथ चलती हैं। इस घाटी की अिधकांश ब�स्तयां काफी स्वच्छ नजर आती हैं। िचपको आंदोलन में बतौर छा� शािमल रहे गोपेश्वर क� भूपाल िसंह नेगी तब से आज तक चंडी �साद भट्ट क� साथ हैं। वह कहते हैं, “यहां क� लोग गंदगी नहीं फ�लाते, क्योंिक वे �क�ित क� �ित अपनी िजम्मेदारी समझते हैं।” शहर क� एकदम नीचे 300 घरों वाला एक गांव है। इसका नाम भी गोपेश्वर है। यह गांव मध्य िहमालय में पाए जाने वाले सदाबहार बांज क� घने जंगल से िघरा है। नेगी बताते हैं, “इस जंगल को गांव की मिहला� ने उगाया है।” िचपको आंदोलन से �ेरणा लेकर अस्सी क� दशक की शुरुआत में इन मिहला� ने गांव की बंजर भूिम पर पौध लगा� और देखभाल क� िलए एक सिमित बना दी। आज उनमें से कोई भी मिहला जीिवत नहीं है। लेिकन जो पौध उन्होंने लगाई थी, वह 12-18 मीटर ऊ�चे पेड़ों में बदल चुकी है। अब गांव की युवितयां इस जंगल की देखरेख करती हैं। वे आपस में पैसा इकट्ठा कर इसक� चारों ओर बनी दीवार की मरम्मत करवाती हैं तािक जंगली जानवरों से नुकसान न पहुंचे। बारी-बारी से रोजाना दो लड़िकयां जंगल की चौकीदारी का िजम्मा संभालती हैं। सिमित की सदस्य चं�कला िबष्ट कहती हैं, “अब यह जंगल

हमारी सभी जरूरतों की पूितर् करता है। िपछले 25 साल में गांव की िकसी मिहला को दूसरे जंगलों में जाने की जरूरत नहीं पड़ी।” पपिड़याना गांव क� लोगों क� पास भी िदखाने क� िलए बांज का ऐसा ही जंगल है, जो उन्होंने िचपको आंदोलन क� एक अन्य सेनानी मुरारी लाल क� मागर्दशर्न में लगाया है। 83 वष�य मुरारी लाल छड़ी लेकर चलते हैं, लेिकन 1973 में लगाए अपने बांज क� पेड़ों को िदखाने क� िलए फ�त� से पहािड़यों पर चढ़ जाते हैं। “यह जंगल वन िवभाग क� उस दावे को झुठलाता है िक बांज क� पेड़ िसफ� मध्य िहमालय क� ऊ�चे क्षे�ों में ही उगाए जा सकते हैं।” पवर्त जन में बांज क� जंगल उगाने की ललक को देखकर मुझे ‘डाउन ट� अथर्’ क� संस्थापक संपादक अिनल अ�वाल का एक लेख याद आता है, िजसमें वह कहते हैं: बांज क� पत्ते पोषण से भरपूर और पानी सोखने वाले धरण को बढ़ाते हैं। इसिलए बांज का जंगल लंबे समय तक पानी को रोककर रखता है और धीरे-धीरे छोड़ता है, िजससे पानी की सदाहबार धाराएं और �ोत बढ़ते हैं। यही वजह है िक सिदयों से बांज क� जंगलों क� आसपास गांव आबाद रहे हैं। रास्ते में हम क��क�ली गांव में रुकते हैं। यह अलकनंदा की सहायक बा�ल्खला नदी क� िकनारे बसा हुआ है और ऐसा लगता है मानो िकसी कहानी की िकताब से �कट हुआ है। इसक� आगे बांज का जंगल है और नदी क� िकनारे-िकनारे खेत हैं। एक चाय की दुकान पर मेरी मुलाकात एक िकसान से हुई। मैंने उनसे उनक� जंगलों क� बारे में पूछा। तीन साल पहले पोस्टमास्टर की नौकरी से �रटायर होने क� बाद खेतीबाड़ी में लगे सव�� िसंह बतर्वाल बताते हैं, “हमने 1983 से जंगल को छ�आ भी नहीं। हमारी रोजमरार् की जरूरतें उस जंगल से पूरी हो जाती हैं, जो हमने गांव की सावर्जिनक भूिम पर उगाया था। िफलहाल इस दो हेक्ट�अर िहस्से में बड़ी इलायची, रीठा, मेंथा जैसे औषधीय व सुगंिधत पौधे और बिढ़या भूसा देने वाले भीमल और कचनार हैं।” बतर्वाल मुझे मिहला� क� एक समूह क� पास ले जाते हैं, जो खेतों में खाद डालकर घर लौट रही हैं। इनमें दो बार वन पंचायत की �मुख रह चुकी कांता देवी भी शािमल हैं। वह बताती हैं िक जबसे गांव ने अपना जंगल उगाया है, तब से मिहला� की िजंदगी िकतनी बदल गई है। शराब-िवरोधी अिभयानों में सि�य भूिमका िनभाने वाली कांता कहती हैं, “पहले गांव की मिहला� को सुबह चार बजे घर से िनकलना पड़ता था और िदन में 11 बजे तक लौटती थीं। लेिकन आजकल वे नए जंगल से सूखी पित्तयां, टहिनयां व घास इकट्ठा करती हैं और अपने बच्चों को ज्यादा समय दे पाती हैं।” www.downtoearth.org.in | 41

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आवरण कथा हम मंडाल गांव के जंगल की ओर जाने वाली सड़क पर आगे बढ़ते हैं। यहां चंडीप्रसाद भट्ट के नेतृत्व में पहली बार चिपको आंदोलन हुआ था। करीब 2,280 मीटर की ऊंचाई पर सून के पेड़ आसमान छूते लगते हैं। ये वही पेड़ हैं जिन्हें इलाहाबाद की साइमंड्स कंपनी खेल का सामान बनाने के लिए गिराना चाहती थी। लेकिन रोजगार सृजन के उद्देश्य से शुरू किये गए भट्ट के सहकारी संगठन दशोली ग्राम स्वराज संघ (जिसका नाम बाद में दशोली ग्राम स्वराज मंडल यानी डीजीएसएम हो गया) को साइमंड्स के इरादों की भनक लग गई। उन्होंने संगठन के मुखिया आलम सिंह बिष्ट के नेतृत्व में गांववालों को संगठित किया। पेड़ों को बचाने के लिए उन्होंने इन्हें गले लगाने का निश्चय कर लिया। भट्ट ने मुझे बताया कि उन्होंने इसके लिए मूलतः गढ़वाली शब्द ‘अंग्वाल’ का इस्तेमाल किया था, जिसका अर्थ होता है - गले मिलना, बाद में यही आंदोलन ‘चिपको’ के नाम से मशहूर हुआ। वैसे किसी को पेड़ से लिपटने की जरूरत नहीं पड़ी। धमकी ही काफी थी और साइमंड्स को खाली-हाथ लौटना पड़ा।” लौटते हुए हमारी मुलाकात बचेर गांव की कलावती देवी से हुई, जिन्होंने 1980 के दशक में सरकार को अपने दूरस्थ गांव में बिजली पहुंचाने पर

बाध्य कर दिया था। उन्होंने शराबखोरी के खिलाफ भी अभियान चलाया और वन माफिया से लड़ीं। 63 साल की कलावती देवी कहती हैं, “जंगल हमारे बच्चे की तरह है। इसे बचाने के लिए हम जी-जान लगा देती हैं। जंगल के मामले में हम आदमियों पर भरोसा नहीं करतीं।” गौरतलब है कि पिछले चार दशक से महिलाएं ही इस वन पंचायत की मुखिया रही हैं। इस साल पहली बार एक पुरुष को वन पंचायत का मुखिया चुना गया है। अगले दिन चंडीप्रसाद भट्ट से मेरी मुलाकात हुई। वह कहते हैं, “हमने इसी बदलाव के लिए संघर्ष किया था। हम चाहते थे कि लोग अपने जीवन में पेड़ों और पर्यावरण के महत्व को समझें ताकि हमारे जाने के बाद भी ये बचे रहें। चार दशक पहले, जब मैं जवान था और गोपेश्वर एक छोटा-सा गांव था, महिलाएं खुलकर नहीं बोलती थीं। आज वे जंगल और गांव से जुड़े सभी फैसले लेती हैं।” यह बताते हुए 83 वर्षीय गांधीवादी की आंखों में चमक साफ नजर आती है। “और तो और वन विभाग को भी अपना नजरिया बदलना पड़ा। पहले विभाग की नर्सरी में 90-95 फीसदी चीड़ की पौध होती थीं। चीड़ का पेड़ व्यावसायिक रूप से तो महत्वपूर्ण है, लेकिन इससे जमीन को कोई फायदा नहीं होता। पिछले 10-15 सालों में उनकी नर्सरी में चीड़ का कोई पौधा नहीं है।”

चिपको का असर पूरी घाटी में साफ नजर आता है। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के अहमदाबाद स्थित स्पेस एप्लीकेशन सेंटर द्वारा 1994 में किया गया एक अध्ययन बताता है कि सन 1972

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से 1991 के बीच सरंक्षित वनों से बाहर गांवों के आसपास कम से कम 5,113 हेक्टेयर जंगल तैयार हुआ है। इसमें से 1,854 हेक्टेयर जंगल तो गांवों की बंजर भूमि पर उगाया गया है।

(नीचे) गोपेश्वर गांव में ग्रामीणों ने बांझ का जंगल उगा लिया है। इससे पिछले २५ सालों से गांव की किसी भी महिला को चारा या जलावन की लकड़ी इकट्ठा करने दूर के जंगलों में नहीं जाना पड़ता। चिपको आंदोलन के प्रणेता चंडी प्रसाद भट्ट (बायें) का भी मानना है की हर गांव का अपना एक जंगल होना चाहिए

जंगल नही तो कुछ नहीं

चमोली जिले से निकलते ही चिपको का असर कम होता दिखता है। जब हम टिहरी गढ़वाल जिले की ओर बढ़ते हुए पौड़ी गढ़वाल से गुजरते हैं तो पहाड़ ज्यादा नंगे नजर आते हैं। दूर तक चीड़ के पेड़ों का ही प्रभुत्व दिखता है। कई जगह पहाड़ों के किनारों पर गहरे कटाव से दिखते हैं। भट्ट के शब्द मेरे दिमाग में गूंजते हैं: “सिर्फ जंगल का विस्तार ही भूस्खलन को रोक सकता है।” कई जगह खेत बंजर पड़े हैं। टिहरी गढ़वाल के जजल से उत्तराखंड जन जागृति संस्थान (यूजेजेएस) के आरण्य रंजन ने मुझे फोन पर बताया, “लोगों की खेती और जंगलों में रुचि खत्म हो रही है”। जेजेएस की स्थापना 1983 में चिपको आंदोलन के एक वरिष्ठ कार्यकर्ता ने की थी, जो खेती को फायदे का सौदा बनाना चाहते थे। वह कहते हैं, “जंगली जानवरों के हमलों और बदलती जलवायु की वजह से कृषि अब फायदेमंद नहीं रह गई है और जंगल लोगों के हाथ से बाहर हो गए हैं। इससे बड़े पैमाने पर पलायन को ही बढ़ावा मिलता है लेकिन इससे जंगलों में आग लगने की आशंकाएं बढ़ जाती हैं। पहले लोग नियमित रूप से अपने जानवरों को जंगलों में चराने के लिए ले जाते थे और हरी खाद व मवेशियों के नीचे डालने के लिए जंगल से घास-फूस इकट्ठा कर लेते थे। लेकिन अब यह सब जंगल में जमा होता रहता है और आग पकड़ लेता है।” इस मामले को बेहतर ढंग से समझने के

लिए हम जरधार गांव में विजय जरधारी के पास गए। वह 1970 के दशक के अंत में सुंदरलाल बहुगुणा के नेतृत्व में चिपको आंदोलन में शामिल हुए थे। आज वह बीज बचाओ आंदोलन (बीबीए) अभियान के तहत पारंपरिक फसलों को बढ़ावा देने में लगे हुए हैं, जिन पर जलवायु परिवर्तन का असर नहीं होता। उनका आंगन एक आकर्षक नर्सरी जैसा लगता है, जहां उत्तर पूर्व का एक टमाटर का पेड़ और कई तरह की तुलसी हमें मिलती है। अपने गांव के बाद एक जंगल का उदाहरण देते हुए जरधारी कहते हैं, “लोग जंगल को तभी बचाते हैं, जब उस पर उनका मालिकाना हक हो। 1980 से पहले ये बुरी तरह बर्बाद हो रहा था। चिपको आंदोलन से प्रेरणा लेकर हमने एक वन सुरक्षा समिति बनाई जिसने पेड़ लगाए और जंगल की देखभाल की। समिति ने 300 रुपये में दो चौकीदारों को नौकरी पर रखा। आखिरकार हर तरह के पेड़ उग आए। अब जंगल से कुछ जलधाराएं भी बहती हैं। आज लोग जड़ी बूटियों, चारे, कंदमूल के लिए जंगल पर निर्भर हैं। इसलिए जब 2013 में जंगल की आग लगी, तब गांव के लोग दौड़े और बढ़ती आग को रोक दिया। पाटुली, लशियाल और कोट जैसे कई गांवों में लोगों ने अपने जंगल उगाए हैं।” चिपको आंदोलन में शामिल होने के लिए अपनी नौकरी छोड़कर हेमल नदी के पास अडवानी जंगल को बचाने के लिए उपवास करने वाले सर्वोदय कार्यकर्ता धूम सिंह नेगी को इस बात का दुख है कि क्षेत्र के लोग कृषि छोड़कर कस्बों में पलायन कर रहे हैं। वह कहते हैं, “हम लोग बीबीए का संदेश फैलाकर खेती को किसान के लिए लाभदायक बनाने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन लोग शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी की वजह से गांव छोड़ रहे हैं।” उल्लेखनीय है कि आज भी उत्तराखंड में ज्यादातर गांव मनी-ऑर्डर व्यवस्था पर निर्भर हैं। खेतीबाड़ी छोड़कर लोगों के शहरों की ओर पलायन

चमोली जिले से निकलते ही चिपको का असर कम होता दिखाई पड़ता है। जब हम टिहरी गढ़वाल जिले की ओर बढ़ते हुए पौड़ी गढ़वाल से गुजरते हैं तो पहाड़ ज्यादा नंगे नजर आने लगते हैं

ने राज्य के 16,973 में से 3,600 गांवों को भुतहा यानी निर्जन बना दिया है। चिपको आंदोलन का एक महत्वपूर्ण प्रभाव यह था कि इसने केंद्र सरकार को भारतीय वन अधिनियम, 1927 को बदलने की प्रेरणा दी और फिर वन सरंक्षण कानून, 1980 लाया गया, जिसमें कहा गया है कि वन भूमि का प्रयोग गैर-वन उद्देश्यों के लिए नहीं किया जा सकता। उसी साल आए एक ऐतिहासिक आदेश में 1,000 मीटर से अधिक ऊंचाई वाले क्षेत्रों में व्यावसायिक उद्देश्यों से हरे पेड़ों का कटान प्रतिबंधित कर दिया गया। उत्तराखंड में गांव बचाओ आंदोलन के अनिल प्रकाश जोशी कहते हैं, “इन सभी कानूनों ने वनों का सरंक्षण तो सुनिश्चित किया लेकिन लोगों का जंगल से संबधं भी खत्म कर दिया।” पीपल्स एसोसिएशन फॉर हिमालय एरिया रिसर्च के संस्थापक और उत्तराखंड की गहरी जानकारी रखने वाले इतिहासकार शेखर पाठक मानते हैं कि गांवों की आत्म-निर्भरता के मामले में आंदोलन नाकाम रहा। पहाड़ों में लोग वानिकी, पशुपालन और खेती पर निर्भर करते हैं। पाठक कहते हैं, “हम चाहते थे कि खिलौने बनाने और मंदिर शिल्प जैसी चीजों का प्रशिक्षण देकर हम लोगों को आजीविका के नए अवसर मुहैया कराएं। इसी उद्देश्य से 1975 में वन निगम की स्थापना की गई थी। लेकिन इसकी गतिविधियां अब सिर्फ पेड़ों की कटाई और लकड़ी की बिक्री तक सीमित रह गई हैं। हालांकि उन्हें लगता है कि ये आंदोलन अभी समाप्त नहीं हुआ है। चमोली में डीजीएसेम अब भी इको-डेवलपमेंट कैंप्स के जरिए बंजर भूमि पर पौधरोपण के कार्यक्रम आयोजित कर रहा है। जंगलों पर बोझ कम करने के लिए ये व्यवसायिक रूप से महत्वपूर्ण पौधों को एक नर्सरी में उगाता है और उनकी पौध गांववालों को देता है। पाठक कहते हैं, “डीजीएसएम की पौध के बचे रहने की दर करीब 90 फीसदी है, जबकि सरकारी पौधरोपण के बचने रहने की दर 10-15 फीसदी है।” पिछले पांच-सात साल में डीजीएसएम मंडाल घाटी के 23 गांवों में ज्यादा पोषक नेपियर घास की शुरुआत की है, जिसे लोग अपने खेतों के आसपास उगा सकते हैं। संस्था लोहे के हल से जुताई को भी बढ़ावा दे रही है। टिहरी में अब बीबीए और यूजेजेएस के जरिए आंदोलन की नई लहर आ रही है। देहरादून में चिपको कार्यकर्ताओं ने एक हिमालयन एक्शन रिसर्च सेंटर खोला है जो किसानों को ऑर्गेनिक फॉर्मिंग और छोटे कामधंधों का प्रशिक्षण देता है। दिल्ली के लिए निकलते वक्त मुझे चंडी प्रसाद भट्ट के शब्द याद आ रहे थे। हर गांव, चाहे वह पर्वतीय हो या जनजातीय, उसके पास एक ग्राम वन होना ही चाहिए। अगर गांव के नजदीक कोई सरंक्षित वन है तो उसे भी ग्राम वन के लिए दे दिया जाना चाहिए। शोध बताते हैं कि 50 हेक्टेयर का जंगल छह महीने में पर्याप्त चारा पैदा कर लेता है और उससे गांव को सालाना 10 लाख रुपये की आमदनी हो सकती है। www.downtoearth.org.in | 43

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आवरण कथा

माओवादियों से इतर बस्तर हिंसा के भय को भूल भी जाएं तो दंडकारण्य में शिक्षा और स्वास्थ्य की स्थिति बेहद चिंताजनक है

छत्तीसगढ़

दंतेवाड़ा

श्षरे ्ठा बनर्जी बस्तर के लोग मृत्यु में भी जीवंतता तलाश लेते हैं। कोई समाज समाधियों को तभी इतना सजा सकता है, जब जीवन में आशा की किरण शेष हो

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1वीं सदी में हम लोगों के लिए

बस्तर जंगलों और आदिवासियों का इलाका होने के साथ-साथ सुरक्षा बलों और हथियारबंद विद्रोहियों की मौजूदगी वाला एक रक्तरंजित रणक्षेत्र भी है। देखा जाए तो यह अनुमानों पर आधारित भूदृश्य है। जब तक कोई व्यक्ति खुद छत्तीसगढ़ के इस क्षेत्र में जाकर न देखे, तब तक हकीकत को समझना बहुत मुश्किल है। जगदलपुर से दंतेवाड़ा तक की सड़क साल के घने जंगलों के बीच से गुजरती है, जहां जंगली फलों वाले पेड़ और औषधीय पौधे खूब दिखाई देते हैं। थोड़ी-थोड़ी दूरी पर केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल की चौकियां नजर आती हैं। शाम होने के बाद लोग अकसर इन इलाकों में जाने से मना कर देते हैं। हमें भी चेताया गया था। ‘आपको डर नहीं लगा यहां आने में?’ जब मैं जिलाधीश से मिलने के लिए पहुंची, तो दंतेवाडा जिला कलेक्टरेट में एक क्लर्क ने मुझसे पूछा। मुझे और मेरी सहयोगी, दो महिलाओं को दक्षिण बस्तर में देखकर उसके मन में यही सवाल सबसे पहले आया। पिछले दशक से बस्तर के जंगलों में फैली विद्रोह की आग ने एक भय का वातावरण बना दिया है। संघर्षों, बंदूकों और गिरफ्तारियों के बारे में परेशान करने वाले किस्से आम हैं। शायद यही वजह है कि दंडकारण्य के जंगलों की हरियाली और जल धाराएं बेचैनी से राहत नहीं दे पाती हैं। ‘दंडकारण्य’ का सामान्य अर्थ ‘दंड देने वाला जंगल’ होना चाहिए। लोक चर्चाओं में कहा जाता है कि ये जंगल कई भयानक जंतुओं और देश निकाला दिए गए लोगों का घर थे। यह साख आज भी कायम है। आज भी ऐसा लगता है कि यहां के लोगों को देश निकाला दिया गया है। खूबसूरती, संसाधनों और आदिवासी संस्कृति से सराबोर होने के बावजूद ये जंगल ‘माओवाद प्रभावित’ क्षेत्र के नाम से जाने जाते हैं। सशस्त्र संघर्ष के कई दुष्परिणामों में से एक यह है कि इससे क्षेत्र में रह रहे देश के निर्धनतम आदिवासियों का जीवन बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। अशांति की वजह से लोगों के रोजमर्रा के जीवन, उनकी जरूरतों और इच्छाओं का दमन हो रहा है। कुपोषण, स्वास्थ्य देखभाल, साफ पानी और शिक्षा

जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे आम तौर पर किनारे कर दिए गए हैं। हमारी दंतेवाड़ा की यात्रा का मकसद इन किनारों को छूना ही है।

जीवन के पहले अंकुर

एक नजर बस्तर के अतीत पर डालते हैं। बस्तर का इतिहास यहां का भूगोल है। करीब 3 अरब वर्ष पहले यहां जीवन ने आकार लिया। जो पौधे और पेड़ हम अब देखते हैं, वे जीवन के पहले अंकुरों के पूर्वज हैं। यह क्षेत्र उस स्थान से पुराना है, जिसे हम भारत कहते हैं। यह तब एक अलग भूगर्भीय संरचना था। उस समय भारत ऐसा नहीं दिखता था, जैसा आज है। उस समय आदिवासी नहीं थे और पौधे-पेड़ उनके होने के लिए वातावरण तैयार कर रहे थे। बस्तर में अबुझमाड़ पर्वत, यानि विचित्र पहाड़ियां है जो 3,900 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले जंगलों से घिरा है। वर्ष 2009 में सरकार ने इन पहाड़ों तक पहुंचने के लिए रास्ता खोला। 1980 के दशक से ही ये पहुंच से दूर थे। यही वह जगह है, जहां कृषि से पहले के जीवन को आज भी महसूस किया जा सकता है। इन जंगलों में गोंड जैसे आदिवासी समुदाय रहते हैं, जिनके पास ‘भविष्य’ जैसा शब्द हैं। हालांकि, ऐसे कई शब्दों ने अब इन्हें जकड़ लिया है। कई जनजातियां तो ऐसी हैं, जिनके अब सिर्फ पांच-सात लोग बचे हैं। यह उस जीवन का हाल है जिसका अस्तित्व करीब 10 हजार साल पुराना है।

लाल विडंबना

सुबह जल्द ही हम बचेली जाने के लिए निकले, जो दंतेवाड़ा में राष्ट्रीय खनिज विकास निगम (एनएमडीसी) के दो सबसे महत्वपूर्ण लौह खनिज उत्पादन केंद्रों में से एक है। जैव विविधिता वाले बैलाडिला पर्वत श्रृंखला की तलहटी पर बसा बचेली उच्च-गुणवत्ता वाले लौह अयस्क भंडारों के लिए प्रसिद्ध है। 1960 के दशक के शुरुआती वर्षों से ही एनएमडीसी बैलाडिला में लौह अयस्क का खनन कर रहा है। वर्तमान में, इसके पास 2,553 हेक्टेयर वन क्षेत्र में फैले पांच कार्यशील खनन पट्टे हैं। वर्ष 2015-16 में इसने रॉयल्टी के रूप में 577 करोड़ रुपए की कमाई की। जिलाधीश सौरभ कुमार कहते हैं, पिछले वर्ष कमाई 953 करोड़ रुपए थी। जिले में कई वर्षों से इतनी कमाई हो रही है।

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फोटो: श्रेष्ठा बनर्जी /सीएसई

लेकिन लाल रंग के खनिज की अमीरी से यहां की जनसंख्या के बड़े हिस्से को कुछ नहीं मिला है। बचेली से गुजरने वाली मुख्य सड़क पर ‘इंडियन कॉफ़ी हाउस’ लिखा एक साइनबोर्ड एनएमडीसी की टाउनशिप की ओर इंगित करता है, जहां अमीर लोग रहते हैं। ठीक दूसरी तरफ, कुछ किलोमीटर अन्दर, एक घड़ा पानी के लिए लोग अच्छी-खासी दूरी पैदल तय करते हैं। बचेली में छितरी जनसंख्या वाले गांव पारापुर में पानी भरने के लिए अपने सिर पर घड़ा रखकर जाती औरतें एक आम दृश्य हैं। नंदी उनमें से एक हैं। हिंदी बोल सकने में असमर्थ होने पर वह हमारे साथ चल रहे स्थानीय व्यक्ति की मदद से इशारों में अपनी बात कहती हैं। वह और उनकी तरह कई और औरतें प्रतिदिन रोजमर्रा की जरूरतों के लिए कई किलोमीटर पैदल दूरी तय कर पानी लाती हैं। दंतेवाड़ा में नल का साफ पानी केवल दो प्रतिशत ग्रामीण परिवारों को ही उपलब्ध है। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, क्षेत्र की 84 प्रतिशत परिवार हैंडपंप पर निर्भर है। लेकिन गांवों में हमने जितने भी हैंडपंप देखे, जिनमें से अधिकतर खराब थे। जहां हैंडपंप चल रहे हैं, वहां लोग पानी की गुणवत्ता को लेकर आशंकित हैं। उनको डर

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बस्तर में सशस्त्र संघर्ष के कई दुष्परिणामों में से एक यह है कि इससे क्षेत्र में रह रहे देश के सबसे गरीब आदिवासियों का जीवन बुरी तरह प्रभावित हो रहा है है कि पानी लौह खनिज से प्रदूषित हो सकता है। इसलिए नंदी और दूसरी महिलाएं पाइपलाइन से आने वाले जलस्रोतों के पानी पर निर्भर रहती हैं।

इलाज कोसों दूर

हम गैर-लाभकारी संस्था ग्रामोदय के कार्यालय में बैठे हैं, जो पिछले 13 वर्षों से दंतेवाड़ा में स्वास्थ्य

के मुद्दों पर काम कर रही है। गौरी शंकर 10 अन्य लोगों के साथ यहां काम करते हैं। वह कहते हैं, “सुदूर बसे गांव स्वास्थ्य केन्द्रों से कटे हुए हैं।” बचेली में कामालुर और झेरका जैसे गांवों के लोग प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी) पहुंचने के लिए 10 किलोमीटर से अधिक पैदल चलते हैं। कस्बे के पास बसे गांवों की स्थिति अपेक्षाकृत थोड़ी ठीक है, एनएमडीसी हॉस्पिटल पास ही है और स्वास्थ्य केंद्र 4-5 किलोमीटर के पैदल रास्ते पर है। जिला अस्पताल में स्वास्थ्यकर्मी आशीष बोस आधारभूत स्वास्थ्य सुविधाओं में भारी कमी की बात स्वीकार करते हैं। वह कहते हैं, “जिला अस्पताल में एनस्थेसिया के लिए प्रशिक्षित डॉक्टर से लेकर क्षेत्र में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र की कमी जैसी कई चुनौतियां हैं।” पिछले साल स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा किए गए सर्वेक्षण में यह बात रेखांकित की गई है। दंतेवाड़ा की जनसंख्या 533,638 है, जिसमें से 82 प्रतिशत आबादी ग्रामीण हैं। इनके लिए यहां केवल 11 पीएचसी हैं। इसका अर्थ यह है कि प्रत्येक 48,500 लोगों पर सिर्फ एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र है। इन केंद्रों पर डॉक्टर मिल जाए और ठीक से इलाज हो सके, इसकी कोई गारंटी नहीं है।

दंतेवाड़ा जिले के पारापुर गांव निवासी सीता का कहना है कि खनन क्षेत्र से निकट होने के बाद भी गांव अभी तक विकास से कोसों दूर है

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आवरण कथा या 11 साल के होते हैं, तब तक अपने परिवार की आजीविका में मदद के लिए जुट चुके होते हैं।” सरकारी अधिकारियों और गैर-लाभकारी शिक्षा संस्थाओं से बातचीत में एक अक्सर सुनाई देती है, “पोटा केबिन” (पोर्टेबल केबिन)। ये वो स्थान हैं, जहां खाना मिलता है और शिक्षा दी जाती है। गोंडी भाषा में ‘पोटा’ का अर्थ है ‘पेट’। दंतेवाड़ा में वर्ष 2011 से ‘सुरक्षित आवास’ के रूप में इन केबिन की शुरुआत हुई। आम तौर पर बांस और लकड़ी से बने ये आवासीय विद्यालय पहली से आठवीं कक्षा तक के विद्यार्थियों को शिक्षा उपलब्ध कराते हैं। प्रणीत कहते हैं, “अभी 17 ऐसे आवासीय विद्यालय हैं, जिनमें प्रत्येक में लगभग 500 सीट हैं।” बच्चों के लिए ये सुरक्षित जगहें दूरस्थ स्थानों पर बनाई गई हैं, जिससे बच्चों को घर छोड़ना पड़ता है।

एक बड़ी उम्मीद

सुदूर इलाकों के विद्यार्थी दंतेवाड़ा के रोंझे गांव स्थित मध्य विद्यालय में पढ़ने आते हैं। विद्यालय गांव से दूर होने के कारण विद्यार्थियों को छात्रावास में रहना पड़ता है

गांवों में बच्चों और महिलाओं के लिए स्वास्थ्य और पोषण व्यवस्था भी इतनी ही चुनौतीपूर्ण है। धुरली गांव में आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं के साथ स्वास्थ्य मुद्दों पर काम करने वाली सीमा कुंजुम कहती हैं, “यहां आंगनवाड़ी केंद्र तो हैं, लेकिन कार्यकर्ताओं में पोषण की शिक्षा और पोषण की निगरानी को लेकर जागरुकता की कमी है।” अपने इस अनुभव की आंकड़ों के साथ तुलना करने के लिए मैंने स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा बच्चों पर किए गए रैपिड सर्वेक्षण पर नजर डाली। छत्तीसगढ़ में पांच वर्ष से कम उम्र के लगभग 38 प्रतिशत आदिवासी बच्चे कम वजन वाले हैं, जबकि 44 प्रतिशत का ठीक से विकास नहीं हो रहा है।

जहां घर हैं, वहां स्कूल नहीं

हम सुबह करीब 10 बजे शहर से ठीक बाहर रोंजे गांव में एक छोटे से स्कूल में रुके। सफ़ेद और नीली वर्दी में लड़के और लडकियां कक्षाओं के लिए इकठ्ठा हुए थे। कक्षा आठ में पढने वाली तारावती रोंजे में अपने दूर के रिश्तेदार के पास रहती है, ताकि वह स्कूल जा सके। उसके गांव में स्कूल नहीं है। वह कहती हैं, “पढने के लिए अधिकतर बच्चे हॉस्टल में रहते हैं।”

इन दिनों बस्तर में बच्चों का शहरों और बड़े गांवों के आसपास सरकार द्वारा स्थापित होस्टलों में रहकर पढ़ना जीवन का स्वीकार्य हिस्सा बन चुका है। दूरदराज के गांवों में स्कूल बहुत कम हैं। लगभग 150 परिवारों वाले नेतापुर गांव की प्राथमिक शाला में अध्यापक त्रिवेन्द्र कुमार निर्मलकर कहते हैं, “जहां भवन हैं भी, वहां अध्यापकों न होना एक बड़ी चुनौती है।” इस गांव में साक्षरता की दर बहुत कम है, मात्र 12 प्रतिशत! स्कूल में दो अध्यापक और केवल 22 छात्र हैं। इस इलाके में माध्यमिक स्कूल बहुत कम हैं। निर्मलकर कहते हैं, “आम तौर पर बच्चों को माध्यमिक स्कूल के लिए लगभग पांच किलोमीटर पैदल चलना पड़ता हैं।” दंतेवाड़ा में शिक्षा पर काम करने वाली संस्था बचपन बनाओ के सदस्य प्रणीत कहते हैं, “एक दूसरी समस्या यह है कि माध्यमिक स्कूल तक पहुंचने से पहले ही बच्चे स्कूल जाना छोड़ देते हैं।” इन स्कूलों में अधिकतर अध्यापक दूसरी जगहों के गैर-आदिवासी हैं। वे हिंदी में पढ़ाते हैं और बच्चों द्वारा बोली जाने वाली गोंडी और हलवी भाषाएं नहीं जानते हैं। यह पढ़ाई-लिखाई में बाधक है और बच्चों को समझने में बहुत परेशानी आती है। निर्मलकर सोचते हैं कि आदिवासी गांवों में लोगों के लिए शिक्षा दूर की कौड़ी है। उनके लिए आजीविका ज्यादा सख्त जरूरत है। वह कहते हैं, “जब बच्चे 10

निराश करने वाले आंकड़ों के बावजूद यहां के लोगों ने उम्मीद नहीं छोड़ी है। इन आदिवासी लोगों के बारे में एक महत्वपूर्ण बात यह है कि वे अपने जीवन और मृत्यु को भी बेहद खूबसूरती से सजाते हैं। शहरों में शमशान घाटों और सड़क किनारे कब्रिस्तानों में आदिवासी नेताओं और गणमान्य लोगों की समाधियों पर खूबसूरत भित्ति‍चित्र अंकित किये गए हैं। यह उनके जीवन की समृद्धि‍का प्रतीक है। इस इलाके के लोग वर्षों तक यही समझते रहे कि उनकी जमीन के नीचे लाल रंग का खजाना किसी और का है: कभी राज्य का, कभी खनिज निगम का! वे अपने आप को अलग-थलग महसूस करते रहे, विकास की मार झेलते रहे और अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करते रहे। शायद यही बस्तर की नियति है। हालांकि, सरकार ने संसाधनों पर लोगों के अधिकार को मान्यता दी है। इसके लिए संसद ने मार्च 2015 में केंद्रीय खनन कानून, खान और खनिज (विकास और विनियम) अधिनियम 1957 में संशोधन किया। इन संशोधनों में एक प्रावधान देश के सभी खनन कार्य वाले जिलों में एक गैर-लाभकारी ट्रस्ट, जिला खनिज फाउंडेशन (डीएमएफ), की स्थापना करना है। डीएमएफ का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि खनन से होने वाले लाभों को क्षेत्र के लोगों के साथ साझा किया जा सके। इससे पोषण, स्वास्थ्य, साफ पानी, स्वच्छता और शिक्षा से जुड़ी समस्याएं दूर करने में मदद मिल सकती है। खनन कंपनियों को रॉयल्टी का एक हिस्सा डीएमएफ के लिए राज्य सरकार को देना होगा। बस्तर के सुदूर क्षेत्रों में लोगों तक पहुंच बनाने का सरकार के पास यह महत्वपूर्ण अवसर है। लोगों के साथ विश्वास बहाल करने का भी यह एक बड़ा मौका है। मैं इस उम्मीद के साथ बस्तर छोड़ रही हूं कि अगली बार जबदंतेवाड़ा वापस आऊंगी, तो मुझसे पहला सवाल उस डर के बारे में नहीं पूछा जाएगा, जो यहां आने के नाम से पैदा होता है।

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